– पूज्य संत श्री आशारामजी बापू
मेरे गुरुदेव एक कहानी सुनाया करते थे । उस जमाने में गुरुकुलों में शिष्य गुरुओं की सेवा में बड़ा चाव रखते थे । आजकल सूचनाएँ इकट्ठी करनेवाले लोग तो हैं लेकिन सद्गुरुओं के हृदय से अपने हृदय को एकाकार करनेवाले लोग नहींवत् हो गये हैं । और ऐसे गुरु भी सब जगह नहीं मिलते ।
गुरुकुल के गुरुजी आये । शिष्यों ने कहा : ‘‘गुरुजी ! सेवा से विद्या फलेगी । कोई सेवा बताइये ।’’
गुरुजी : ‘‘और तो कुछ नहीं, मैं जिस गुरुकुल में पहले रहता था वहाँ अपनी सूई भूल के आया हूँ । कोई वह सूई ले आओ, यह सेवा है ।’’
एक विद्यार्थी बोला : ‘‘मैं लाऊँगा ।’’ दूसरा बोला : ‘‘मैं लाऊँगा ।’’
आखिर एक विद्यार्थी ने कहा : ‘‘चलो, अपन दसों-के-दस चलते हैं ।’’
‘‘अरे, एक सूई 10 लोग कैसे लायेंगे ?’’
बोले : ‘‘एक बाँस ले लेते हैं, उसमें सूई खोंस देंगे और दसों-के-दस बाँस को उठा के चलेंगे ।’’
सब बोले : ‘‘ठीक है, ठीक है ।’’
वे दूसरे गुरुकुल के लिए निकल पड़े । बीच में एक मरुभूमि की नदी आती थी । दोपहर का समय था । उन्होंने देखा कि ‘अरे ! यह तो नदी बह रही है । अब क्या करें ?’
‘‘भगवान कृपा करेंगे, सहायता करेंगे और अपन पार हो जायेंगे ।’’
अपने कपड़े-वपड़े थोड़े सिकोड़े और भगवान का नाम लेकर चलते गये । चलते-चलते वे मरुभूमि की नदी लाँघ गये ।
किसीने कहा : ‘‘अरे, लाँघ तो गये लेकिन कोई डूबा तो नहीं ?’’
‘‘खड़े हो जाओ, अपन गिनते हैं ।’’
‘‘1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9... अरे यार ! एक घट गया ।’’
‘‘नहीं-नहीं, कोई डूबता तो चिल्लाता ।’’
‘‘गिन के देख ।’’
जो सामनेवाली पंक्ति में था वह गिनने को आ गया । उसने भी 9 गिन डाले । ऐसे सबने 9 गिन डाले । बड़ा स्यापा करने लगे कि ‘हाय रे हाय ! एक डूब गया ! लेने गये थे सूई और अपने एक सहपाठी को खो के आये, डुबा के आये । अरे भगवान ! अरे... !!’’ वे पुकार करने लगे, स्यापा करने लगे । इतने में कोई समझदार पुरुष वहाँ से गुजरा, पूछा : ‘‘क्यों रो रहे हो ?’’
बच्चे बोले : ‘‘क्या करें ! हम थे तो 10 लेकिन एक डूब गया और पता भी नहीं चला ।’’
उसने दृष्टि डाली और बोला : ‘‘हैं तो यहाँ दस-के-दस । एक डूब गया कैसे ? गिनो मेरे सामने ।’’
उन्होंने गिना और गिनने में अपने को छोड़ के सबको गिनते थे । वह सयाना व्यक्ति समझ गया कि कहाँ है गलती । उसने कहा : ‘‘भाई ! जो 10वाँ डूबा है उसको मैं जानता हूँ ।’’
‘‘जानते हैं तो आप मिला दीजिये, कृपा करिये, हम आपकी शरण हैं...’’ आदि-आदि बोलने लगे ।
‘‘10वाँ आपको मिल जायेगा ।’’
‘‘आपने कहीं देखा है ? कहाँ है वह ?’’
‘‘मैंने देखा है और अब भी, यहाँ भी देख रहा हूँ ।’’
‘‘कहाँ है ? किधर है ? बताइये ।’’
‘‘मैं अभी बताता हूँ ।’’
उस व्यक्ति ने एक लड़के को फिर से गिनने को बोला । लड़के ने गिनना शुरू किया । 1, 2, 3... 9 की गिनती हो गयी । बोले : ‘‘देखो, ये 9 ही हैं न ! हम सब लोगों ने गिना है ।’’ और भाई साहब ने पीछे पीठ पर दो हाथ मारे, बोले : ‘‘10वाँ तू है !’’
‘‘अरे ! मैंने अपने को तो गिना नहीं... हा... हा... हा... ! 10वाँ मिल गया, मिल गया ! यह 10वाँ मिल गया ।’’ खुशी मनाने लगे । खुशी तो मनाने लगे लेकिन जो ‘हाय ! हाय !’ करके स्यापा किया था उससे जो चेहरा सूज गया था और पीठ में चोट से दर्द हो रहा था, वह उस समय नहीं मिटा, वह धीरे-धीरे मिटेगा ।
ऐसे ही 5 ज्ञानेन्द्रियाँ और 4 अंतःकरण - ये 9 हो गये । 10वाँ जो है परमात्मा, उसको जीव खोज रहा है । परमात्मा को खोज रहे हैं, सुख को खोज रहे हैं लेकिन भैया ! तू खोजनेवाले अपने को गिन अर्थात् अपने को खोज कि मैं कौन हूँ ?
सद्गुरु की युक्ति के अनुसार एकांत में बैठकर खोजते जाओगे तो पता चलेगा कि
खोजत-खोजत कबीरो गयो हेराई ।
खोजत-खोजत खो गया, जिसको खोजता था मैं वही हो गया !
ऐसे ही बाल्यकाल में अपने को खोजनेवाले एक महान लड़के ने अपने ‘मैं’ के शुद्ध स्वरूप को जान लिया और रमण महर्षि के नाम से प्रसिद्ध हुए । पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजीभाई देसाई ने अपने भाषण में कहा : ‘‘मैंने राजनीति के कई पद-प्रतिष्ठाएँ देखीं, प्रधानमंत्री पद में भी वह आनंद, वह शांति नहीं पायी जो पूज्य श्री रमण महर्षि के दर्शन-सत्संग से सुख-शांति का अनुभव होता था ।’’ पॉल ब्रंटन संतों की खोज करने भारतभर में घूमा और रमण महर्षि के चरणों में अपने को धन्य-धन्य महसूस करने लगा ।
अपने को खोजनेवाले रमण विद्यार्थी में से इतने महान संत हुए कि बड़े-बड़े संत उनके दर्शन-सत्संग से धन्यता का अनुभव करते थे ।
REF: ISSUE327-MARCH-2020