- संत श्री आशारामजी बापू
एक लड़का महामूर्ख था । उसका नाम था पाणिनि । उसे विद्यालय में भर्ती किया तो 14 साल की उम्र तक पहली कक्षा में नापास, नापास, नापास... । बाप ने बोला कि ‘‘इससे तो मर जा !’’
माँ ने कहा : ‘‘मेरे पेट से तू पैदा हुआ, इससे अच्छा होता कि मेरे पेट से पत्थर पैदा होता तो तेरे बाप की नाराजगी नहीं सहनी पड़ती ।’’
हर वर्ष पिता की नाराजगी और डाँट मिलती थी । 14-15 साल की उम्र में पिता-माता की डाँट से होनेवाली ग्लानि से कुएँ में कूद के आत्महत्या करने का विचार किया । कुएँ पर गया । महिलाएँ पानी खींचती थीं तो रस्सी से पनघट पर निशान पड़ गये थे, जिन्हें देखकर उसे विचार आया कि ‘रस्सी के आने-जाने से जड़ पत्थर अंकित हुआ तो अभ्यास से मेरी जड़ मति भी सुजान होगी ।’
खोज लिया किन्हीं गुरुजी को । उन्होंने उसे शिवजी के ‘ॐ नमः शिवाय ।’ मंत्र के छंद, देवता, बीज आदि बताकर जप-अनुष्ठान की रीत बता दी और उसका जीवन बदल गया ।
जैसे डायनेमो घूमता है तो ऊर्जा बनती है, ऐसे ही मंत्र बार-बार जपते हैं तो आध्यात्मिक ऊर्जा पैदा होती है, प्राणशक्ति और जीवनीशक्ति - दोनों विकसित होती हैं । परमात्मा से जो चेतना आती है वह जप करने से ज्यादा आती है इसलिए मंत्रदीक्षा का महत्त्व है । मंत्रजप से शरीर के रोग, मन की चंचलता और बुद्धि के दोष भी मिटते हैं ।
जहाँ बल का खजाना है वहाँ गुरुकृपा से मंत्र ने पहुँचा दिया । शिवजी की आराधना की । शिवजी तो नहीं आये लेकिन शिवजी का नंदी आ गया ।
नंदी ने कहा : ‘‘भगवान शिवजी समाधि में हैं । तुम अपना ध्यान-भजन चालू रखो । शिवजी समाधि से उठेंगे और आनंदित होकर डमरू बजायेंगे । डमरू से जो ध्वनि निकलेगी उसका जिसकी जो मनोकामना होगी उसीके अनुसार अर्थ लगेगा ।’’
वह पाणिनि नामक लड़का बैठ गया जप करने । गुरु के दिये हुए मंंत्र का जप करते-करते ध्यानस्थ हो गया ।
शिवजी समाधि से उठे, नृत्य किया और 14 बार डमरू बजाया ।
नृत्तावसाने नटराजराजो ननाद ढक्कां नवपञ्चवारम् ।
उद्धर्तुकामः सनकादिसिद्धानेतद्विमर्शे शिवसूत्रजालम् ।।
(नंदिकेश्वरकृत काशिका)
डमरू की ध्वनि से सनकादि ऋषियों को ‘शिवोऽहम्, सोऽहम्...’ का अर्थ मालूम हुआ लेकिन इसने तो उससे 14 सूत्र प्राप्त किये - अइउण्, ऋलृक्, एओङ्, ऐऔच्, हयवरट्, लण् आदि । इनसे संस्कृत का व्याकरण बनाया । वह लड़का संस्कृत का बड़ा विद्वान बन गया । पाणिनि को मंत्र मिल गया तो बन गये पाणिनि मुनि ! और ऐसी शक्तियाँ जगीं कि उन्होंने संस्कृत का व्याकरण बना दिया ।
उसके बाद उनके व्याकरण की बराबरी करनेवाला कोई व्याकरण नहीं बना । भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित नेहरू भी उनके व्याकरण का सम्मान करते थे । पाणिनि मुनि की प्रशंसा करते हुए पंडित नेहरू बोलते हैं कि ‘कितना महान व्याकरण है इनका !’ विद्यार्थी पहली से लेकर आचार्य (एम.ए.) तक संस्कृत पढ़े तो पाणिनि मुनि का ही व्याकरण काम में आता है ।
मंत्रजप से चंचलता मिटती है और योग्यताएँ विकसित होती हैं । यह मंत्र की कैसी शक्ति है ! जब महामूर्ख में से महाविद्वान बन सकता है तो जीवात्मा से परमात्मा का प्यारा ब्रह्मवेत्ता बन जाय तो क्या आश्चर्य !
REF: ISSUE326-FEBRUARY-2020