Rishi Prasad- A Spiritual Monthly Publication of Sant Sri Asharam Ji Ashram

‘सर्वभाषाविद्’ हैं भगवान

(पूज्य बापूजी की ज्ञानमयी अमृतवाणी)

बोलते हैं : भगवान सर्वभाषाविद् हैं । भगवान सारी भाषाएँ जानते हैं ।भाषाएँ तो मनुष्य-समाज ने बनायीं, तो क्या भगवान उनसे सीखने को आये ? नहीं । तो भगवान सर्वभाषाविद् कैसे हुए ?

सारी भाषाएँ बोलने के लिए जहाँ से भाव उठते हैं, उसकी गहराई में भगवान हैं । उन सारे भावों को समझनेवाले भावग्राही जनार्दन हैं । पहले भाव होता है फिर भाषा आती है, तो भावग्राही जनार्दनः । इसलिए बोलते हैं कि भगवान सर्वभाषाविद् हैं । आप किसी भी भाषा में बोलोगे तो पहले आपके मन में भाव आयेगा, संकल्प उठेगा फिर बोलोगे । तो भाव जहाँ से उठता है वहाँ वे चैतन्य वपु (चैतन्य शरीर) ठाकुरजी बैठे हैं । उनकी सत्ता से ही तो सारे भाव उठ रहे हैं ।

भगवान एक-एक भाषा सीखने नहीं गये कि तुम्हारी भाषा कैसे बोलते हैं । भगवान सर्वभाषाविद्हैं, बिल्कुल सत्य बात है ! अपने-आप उन्हें सब भाषाएँ आ गयीं यह भी नहीं है । भाषाओं के मूल में बैठे हैं तो पता चल गया, बस ! तुम कितने भी मँजे हुए शब्द या सादे शब्द बोलो, वे अंतर्यामी तुम्हारे भावों को जानते हैं । भावग्राही जनार्दनः ।

भावे हि विद्यते देवस्तस्माद्भावं समाचरेत् ।

(गरुड़ पुराण, प्रे.खं.ध.कां. : 37.13)

चर्चा चली कि देवता का विग्रह होता है कि नहीं ? देव का शरीर होता है कि नहीं ?’ चर्चा करते-करते इस निर्णय पर पहुँचे कि देव का शरीर होता ही नहीं, साकार विग्रह होता ही नहीं । भावग्राही जनार्दनः ।तुम्हारे भाव से वह देव उत्पन्न होता है । तुम्हारे अंतर्यामी चैतन्य में जिस देव की भावना हुई हो, वह देव वहाँ बाहर खड़ा हो जाता है । बाकी अमुक जगह अमुक आकृतिवाला देव है - ऐसा नहीं है । भयंकर आकृतिवाले दैत्य हैं - ऐसा नहीं है । भयंकर वृत्ति की आकृतियाँ बनायीं मनुष्य ने और सौम्य वृत्ति की आकृतियाँ बनायीं मनुष्य ने, फिर समझने के लिए यह देव है और यह दानव है, यह असुर है, यह राक्षस है - यह सभी व्यवस्था सँभले इसके लिए बनाया है । बाकी देवों का विग्रह नहीं होता । फिर भी सर्व देवों का देव विग्रहरहित होते हुए भी सभी विग्रहवालों के मन के भावों को जानता है ।

बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना ।

कर बिनु करम करइ बिधि नाना ।।

आनन रहित सकल रस भोगी ।

बिनु बानी बकता बड़ जोगी ।।

(श्री रामचरित. बा.कां. : 117.3)

पग नहीं फिर भी वह (ब्रह्म) सर्वत्र पहुँच सकता है । कान नहीं फिर भी सब सुनता है, हाथ नहीं पर सब कर लेता है, मन नहीं पर सभीके मन की गहराई में वही बैठा है मेरा प्यारा । उस प्रभु की यह अटपटी लीला है । यह लीला सत्संग द्वारा समझ में आये तो प्रभु हृदय में ही मिलता है । जिनको अपने दिल में दिलबर नहीं दिखता, वे बाहर के मंदिरों में और बाहर के भगवान में जिंदगी भर खोज-खोज के थक जायेंगे। जब तक हृदय-मंदिर में नहीं आये तब तक भगवत्प्राप्ति नहीं हो सकती । अखा भगत ने कहा :

सजीवाए निर्जीवाने घड्यो अने पछी कहे मने कंई दे ।

अखो तमने ई पूछे के तमारी एक फूटी के बे ?

तुम तो सजीव आत्मदेव हो, तुम्हारे आत्मदेव की सत्ता से ही मंदिर की मूर्ति बनी । उसकी सत्ता से ही मंदिर के देव की पूजा हुई । फिर हे देव ! मेरा यह कर दे, मेरा ऐसा कर दे - ऐसा कर दे ।मंदिर का देव तो बेचारा संकल्प नहीं करता, वह बेचारा तो बोलता भी नहीं । तुम्हारी भावना से ही अंतर्यामी देव तुम्हारी प्रार्थना स्वीकारता है और वह घटना घटती है ।

भगवान व्यापक हैं, विभु हैं । जिनके हृदय में उनके लिए प्रीति होती है, उनके कार्य वे आप सँवारते हैं और उनके हृदय में प्रकट होते हैं । गुरुवाणीमें आया है :

संता के कारजि आपि खलोइआ ।।

संतों, भक्तों के कार्य भगवान सँवार लेते हैं 

अयोध्या के कनक भवन मंदिर की सेवा में श्यामा नाम की एक घोड़ी थी । वह जब बूढ़ी हो गयी तो उसको पचासों मील दूर मंदिर के खेत में भेजना था । जब निर्णय हुआ कि तू तो अब जायेगी ।तो उसकी आँखों से आँसू आने लगे, घोड़ी ने चारा-पानी छोड़ दिया । वह अयोध्या छोड़ के जाना नहीं चाहती थी । आखिर व्यवस्थापक ने रेल में बोगी बुक करायी और उसे बोगी में चढ़ाया, तो घोड़ी के आँसुओं ने ऐसा कुछ चमत्कार किया कि जानेेवाली रेल से और सारे डिब्बे तो जुड़ गये लेकिन किसी कारण से वह घोड़ीवाला डिब्बा रह गया । घोड़ी फिर कनक भवन में लायी गयी । व्यवस्थापकों ने कहा कि यह इसके हृदय की प्रार्थना है । देखो, भगवान कैसे सुनते हैं !

बड़ौदा से 60 किलोमीटर दूर होगा मालसर । वहाँ लालजी महाराज रहते थे । चतुर्मास के समय नर्मदाजी में नहाने गये । चतुर्मास में तो कई बार नर्मदाजी में बाढ़ की स्थिति होती है । वे किसी भँवर में फँस गये, तैरना जानते नहीं थे तो बोले : ‘‘हे राऽऽऽम... !’’ और सीधे सो गये शवासन में, तो ऐसा लगा मानो नीचे से किसीने हाथ दिया हो और उन्हें किनारे पर खड़ा कर दिया ।

हरि ब्यापक सर्बत्र समाना ।

प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना ।।

(श्री रामचरित. बा.कां. : 184.3)

 

जो भगवान को भाव से पुकारता है, प्रार्थना करता है, वह अपना पुरुषार्थ करे और पुरुषार्थ करते हुए हार जाय तब सच्चे हृदय से पुकारे तो भगवान उसी समय न जाने कैसी अद्भुत लीला करके उसे बचा लेते हैं ।