Rishi Prasad- A Spiritual Monthly Publication of Sant Sri Asharam Ji Ashram

बालक-बालिकाओं को भी उन्नत बनाता ध्यान

- स्वामी मुक्तानंदजी

ध्यान परमार्थ का ही नहीं बल्कि हमारे प्रपंच का भी महान मित्र है । इसमें कुछ संदेह नहीं, कुछ असत्य नहीं । ध्यान से चित्त निर्मल होने से विद्यार्थी उच्च श्रेणी में पास होता है । ध्यानकाल में चित्त-निरोध के कारण थोड़ा-थोड़ा कुम्भक होने से स्नायुओं का बल बढ़ता है । रुधिराभिसरण ठीक होता है । खाया हुआ अन्न पूर्णरूप से पच जाता है । रक्तकण बढ़ते हैं । ध्यान से चपलता (उत्साह, स्फूर्ति) बढ़ती है । नित्यप्रति ध्यान करनेवाले की साधारण छोटी-मोटी बीमारी ठीक हो जाती है । मैंने अपने परिचय के बहुत बालक-बालिकाओं को ध्यान में उच्च स्फूर्ति, स्फुरण, पवित्रता, चरित्रता पा के उन्नत होते हुए देखा है । ध्यान से चित्त शांत और मन सहज ही स्थिर होता है । प्राण की गति साधारण गति से मंद-मंद हो जाती है । अंतर-शांति प्राप्त होने पर जीवन में एक नयी स्फूर्ति आती है ।

शांति से सूर्योदय से पूर्व उठकर स्नानादि करके ध्यान करो । पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख करके या जो भी दिशा है, शांत हो के आसनस्थ बैठ जाओ । याद करो मंत्र की । अंदर जाते हुए और बाहर आते हुए प्राण के साथ मंत्र जोड़कर जप करो । चित्त को मंत्र में मंत्रमय बनाओ । मन यदि इधर-उधर को दौड़ने लगे तो उसे लौटाकर ध्यान में लगा दो ।

तुमको एक और उत्तम प्रक्रिया बताऊँ क्या ? सुनो । पतंजलि ऋषि का एक सूत्र है : वीतरागविषयं वा चित्तम् । वीतराग सद्गुरु या महापुरुष को विषय करनेवाला चित्त भी स्थिर हो जाता है ।   (पातंजल योगदर्शन, समाधिपाद : 37)

अपने चित्त को अपने प्यारे सद्गुरु के ध्यान में लगाओ । यह सिद्धयोग या कुंडलिनी महायोग का प्राण है । ध्यानयोग का रहस्य है, आत्मलाभ की गुरु-कुंजी है ।

मानव जिस-जिस का ध्यान करता है उस-उसके अनुरूप बनता है । जिस वस्तु को वह हृदय में प्रेम से धारण करता है उसी वस्तुमय वह बन जाता है । सिद्ध गुरुजनों का ध्यान बहुत सुलभ है क्योंकि एक तो हम लोग श्रीगुरु के नख से शिखा तक पूर्ण परिचित होते हैं । हम अपने प्यारे सद्गुरु से बार-बार मिल चुके होते हैं (उनके दर्शन-सत्संग का लाभ ले चुके होते हैं) । उनके साथ फिर चुके होते हैं । उनसे अनेक विधि-विधानों को सुन चुके होते हैं । कुछ मस्तीभरी यौगिक क्रियाएँ, उच्च तत्त्वज्ञान की बातें, नानाविध और विचित्र साधनों का ज्ञान, अनेकानेक संत-महात्माओं के चरित्र हम श्रीगुरु से श्रवण करते हैं । यह सब जो-जो भी हमारी मानसिक क्षेत्र की सृष्टि में है वह पूरा-पूरा स्मरण करने या कभी-कभी स्मरण न करने पर भी हमारे सामने आ जाता है, यह सभीका अनुभव है । इसीलिए शास्त्र हमें परमात्मस्वरूप श्रीगुरुदेव का सतत चिंतन करने का आदेश देते हैं । चित्त को सतत उच्च चिंतन में लगाओ । श्रीगुरु-ध्यान महान अलक्ष्य फल (जिसका लक्षण न कहा जा सके वह विलक्षण फल) देनेवाला है । चित्त चैतन्य बन जाने से तुम परमानंदमय की अनुभूति पाओगे ।

REF:ISSUE237-MARCH-2020