Rishi Prasad- A Spiritual Monthly Publication of Sant Sri Asharam Ji Ashram

असली जीत किनकी होती है ?

- पूज्य संत श्री आशारामजी बापू

प्रेम के बिना वास्तविक जीवन की उपलब्धि नहीं होती और वास्तविक जीवन जीनेवाला व्यक्ति न भी चाहे तब भी उसके द्वारा हजारों-लाखों लोगों का शुभ हो जाता है, मंगल हो जाता है, कल्याण हो जाता है । जो निष्काम सेवा करता है वह स्वयं तो रसमय जीवन बिताता ही है, औरों के लिए भी कोई-न-कोई पदचिह्न छोड़ जाता है । जो स्वार्थी है वह स्वयं भी अशांत और परेशान रहता है एवं दूसरों के लिए भी अशांति और परेशानी पैदा कर देता है । जिसके जीवन में निष्काम कर्मयोग नहीं है उसका जीवन भी वास्तविक जीवन नहीं है वरन् खोखला जीवन है ।

किसी सूफी शायर ने कहा है :

मोहब्बत के लिए

कुछ खास दिल मख्सूस1 होते हैं ।

यह वह नगमा2 है

जो हर साज पे गाया नहीं जाता ।।

अहं में ये वाजिब3 है

कि खुदा को जुदा कर दे ।

मोहब्बत में ये लाजिम4 है

कि खुद को फिदा कर दे ।।

चाहे कोई भी मार्ग हो - भक्तिमार्ग हो, चाहे कर्ममार्ग हो, ज्ञानमार्ग हो चाहे योगमार्ग हो, किसीमें भी व्यक्तित्व के सर्जन की बात नहीं आती । कोई यह न सोचे कि मैं आश्रम जाऊँ, सेवा करूँ और अपनी इज्जत बढ़ाऊँ ।इज्जत बढ़ाने के लिए अथवा व्यक्तित्व को सजाने के लिए आश्रम नहीं है वरन् व्यक्तित्व का विसर्जन करने के लिए आश्रम है । व्यक्तित्व का, अहं का विसर्जन करते-करते जब असली इज्जत जागती है तो उसकी चिंता नहीं करनी पड़ती है । व्यवहार में असली इज्जत तो दब जाती है और अहं की इज्जत बढ़ते-बढ़ते वह ठोस होता जाता है और पद-पद पर मान-अपमान की चोटें लगती रहती हैं ।

वे हारते-हारते जीत जाते हैं

दो प्रकार के व्यक्ति होते हैं : एक तो वे होते हैं जो जीवनभर जीतते जाते हैं । जैसे हिटलर, सिकंदर, रावण, कंस आदि चतुराई से जीतते गये, जीतते गये, जीतते गये लेकिन अंत में उन्हें क्या हाथ लगा ? कई लोग अहं के पोषण की वासना में युक्ति से गरीबों का शोषण करते गये लेकिन अंत में उन्हें ऐसा झटका लगा कि वे बुरी तरह हारे एवं चौरासी लाख जन्मों तक हारने की खाई में जा गिरे ।

दूसरे वे होते हैं जो मंदिर में जाते हैं, सद्गुरु के पास जाते हैं । हारना शुरू किया कि मैं कुछ नहीं... भगवान का सेवक हूँ... सद्गुरु की कृपा है...ऐसा करके हारते जाते हैं । हारते-हारते अपना अहं मिटाकर आत्मस्वरूप को पा लेते हैं,अहं ब्रह्मास्मिका अनुभव कर लेते हैं, ब्रह्मस्वरूप हो जाते हैं, ईश्वर से एकाकार हो जाते हैं । असली जीत तो प्रभु-प्रेमियों की होती है, निष्काम सेवकों की होती है, भक्तों, योगियों की होती है । दिखावटी जीत स्वार्थियों की होती है ।

स्वार्थी व्यक्ति के पास धन-दौलत, आडम्बर हो तो आप गलती से उसको सुखी मान लेते हो । वह अपने को सुखी मानता है तो उसकी गलती है लेकिन आप उसे सुखी मानते हो तो आपकी दुगुनी गलती है । बाहरी सुख-सुविधा से सुख-दुःख का कोई विशेष संबंध नहीं होता । सुख और दुःख का संबंध तो अंदर की वृत्ति के साथ होता है ।

मनुष्य जितना-जितना स्वार्थी-अहंकारी होता है उतना-उतना वह भीतर से दुःखी होता है और जितना-जितना उसका जीवन निष्काम होता है, निर्दोष होता है उतना-उतना वह सुखी होता है । शबरी भीलन को कोई दुःखी नहीं कह सकता । शुकदेवजी महाराज केवल कौपीन पहनते हैं, वनों में विचरण करते हैं फिर भी हम उनको दुःखी नहीं कह सकते हैं । इसका मतलब यह नहीं कि मकान-दुकान छोड़कर झोंपड़पट्टी में रहना शुरू कर दो । नहीं... झोंपड़पट्टी में भी सुख नहीं है और मकान में भी सुख नहीं है । सुख तो है प्रभु-प्रेम में, निःस्वार्थता में और निष्कामता में ।

सेवा से होती महान पद की प्राप्ति  

प्रभु-प्रेम और सेवा में माँग नहीं होती, स्वार्थ नहीं होता । सेवा स्नेही से जुड़ी होती है । सेवा करनेवाले को अपने अधिकार की चिंता नहीं होती है, अपनी सुविधाओं की चिंता नहीं होती है । अगर प्रेम है, सेवा है तो अधिकार और सुविधाएँ दासी होकर रहती हैं । जैसे कोई सेवक अपने सेठ की सेवा प्रेम से करता है तो सेठ की सेवा के लिए उसको सेठ के बँगले में रहने को मिलता है, सेठ की गाड़ी में घूमने को मिलता है ।

सेवा करनेवाले में स्वार्थ नहीं होता तो ऐसे सेवक से प्रीतिपूर्वक सेवा होती है और जिसके प्रति प्रीति होती है उसका कार्य करने में आनंद आता है । प्रीति का, प्रेम का साकार रूप है सेवा ।

जो तत्परता, ईमानदारी एवं सच्चाई पूर्वक सेवा करता है उससे सेवा करते समय यदि कोई भूल हो भी जाती है तो वह भूल उसे दिखती है, समझ में आती है । दुबारा वही भूल न हो इसके प्रति वह सावधान हो जाता है । शरीर में रहते हुए भी वह मन, इन्द्रियों एवं शरीर से पार हो जाता है । फिर चाहे आरुणि हो, उपमन्यु हो या संदीपक हो या शबरी भीलन क्यों न हो, ये सब सेवा से ही महान पद को प्राप्त हुए ।     

 

 

Ref: ISSUE316-RP-APRIL-2019