Rishi Prasad- A Spiritual Monthly Publication of Sant Sri Asharam Ji Ashram

रूप-लावण्य को त्यागा, भक्ति को पाया

- पूज्य संत श्री आशारामजी बापू

दक्षिण भारत में एक कन्या हो गयी । बाल्यकाल में ही उसके माँ-बाप मर गये थे । एक कवि ने उसे पाला-पोसा । जब वह 16 वर्ष की हुई तो उसके धर्म के माता-पिता उसके विवाह की बात चलाने लगे । जितनी वह रूपवान थी, उतनी समझदार और चरित्रवान भी थी । उसने भगवान को प्रार्थना की : मेरे रूप-लावण्य के कारण इनके यहाँ मेरी माँग आ रही है । मैं इनको विवाह न कराने की प्रार्थना करती हूँ फिर भी ये कहते हैं कि ‘‘कन्या का तो आखिर ससुराल जाना जरूरी है इसलिए तुम्हारा विवाह कराना हमारा कर्तव्य है ।’’

हे परमेश्वर ! क्या यह मेरा रूप-लावण्य मुझे संसार की दलदल में घसीट ही लेगा ? हे भगवान ! तू मेरी रक्षा कर । मेरा रूप ऐसा तो कुरूप कर दे कि अगर कोई लड़का मुझे देखे तो मुँह मोड़ ले । कोई संसारी मुझे भोग-विकार की एक सामग्री मानकर अपनी भोग्या, खिलौना न बनाये । मेरा जीवन संसार में न घसीटा जाय । तुम मेरा ऐसा रूप नहीं बना सकते प्रभु ! तू कर्तुं शक्यं अकर्तुं शक्यं अन्यथा कर्तुं शक्यम् ।है - तू करने में, न करने में और अन्यथा करने में भी समर्थ है । तेरे संकल्प से तो सृष्टि में उथल-पुथल हो सकती है तो क्या तू मेरे इस सौंदर्य को उथल-पुथल करके कुरूप नहीं कर सकता है ?’

एक रात में क्या से क्या हो गया !

एक रात को कातरभाव से प्रार्थना करते-करते वह कन्या सो गयी । वह 16 वर्ष की सुंदरी सुबह को एकाएक काली-कलूट अधेड़ उम्र की एक महिला के रूप में नींद से उठी । आईना देखा तो बड़ी खुश हुई कि हे जगतपिता ! तुमने मेरी प्रार्थना सुन ली । अब मैं काम के खड्डे में नहीं गिरूँगी बल्कि राम के रस में सराबोर हो जाऊँगी । यह तुम्हारी कृपा है ।

धर्म के माता-पिता ने देखा तो आश्चर्यचकित हो गये : ‘‘बेटी ! क्या हो गया तुझे ?’’

उसने कहा : ‘‘क्या हो गया... ईश्वर का कोप नहीं हुआ है, यह उसकी कृपा मैंने उससे माँगी है । वह शरीर किस काम का जो किसी युवक को मुझे अपनी भोग्या मानने का अवसर दे । नहीं, नहीं... मैं किसीकी भोग्या नहीं, मैंने तो भगवान की योगिनी बनने के लिए भगवान से इस रूप की माँग की ।’’

जब पड़ोसियों ने यह बात जानी तो उसका बड़ा आदर किया कि तू धन्य है ! रूप-लावण्य को त्यागकर तुमने असली सौंदर्य और भक्तियोग की भगवान से भिक्षा माँग ली ।

वह कन्या भगवद्भजन में लग गयी । वह बाहर से तो कुरूप थी लेकिन अंदर का उसका आत्मिक रूप गजब का था । उसने कुछ दिन एकांत में मौन रहकर ध्यान, जप किया । उसके रक्त के कण, नस-नाड़ियाँ पवित्र हुईं, बुद्धिशक्ति में विलक्षण लक्षण प्रकट होने लगे ।

वह कन्या संत अव्वैयार के नाम से बड़ी प्रसिद्ध हुई । लोग उसके दर्शन करने आते और उसके चरणों में प्रसाद धरते, मनौतियाँ मानते और लोगों की मनौतियाँ पूरी होने लगीं । उस संत बाई ने जो प्रवचन किया, लोगों को जो उपदेश दिया उसके ग्रंथ बने हैं । वह कहती थी कि शरीर यानी पानी का बुलबुला और धन-सम्पदा यानी समुद्र की तरंगें ।यह शास्त्रवचन मानो उसके सत्संग का एक मूल बिंदु हो जाता था :

अनित्यानि शरीराणि विभवो नैव शाश्वतः ।।

नित्यं संनिहितो मृत्युः कर्तव्यो धर्मसंग्रहः ।

(गरुड़ पुराण, धर्म कांड - प्रेत कल्प : 47.24-25)

यह शरीर अनित्य है, वैभव शाश्वत नहीं है और मौत रोज शरीर के निकट आ रही है, आयुष्य क्षीण हो रहा है । कर्तव्य है कि धर्म का संग्रह कर लें, भक्तियोग, जपयोग, कर्मयोग, ज्ञानयोग का संग्रह कर लें और श्रेष्ठ गुरुओं के अनुभवों को अपना अनुभव बनानेवाली मति का विकास करके उनके अनुभव का संग्रह कर लें ।  

 

 

Ref: RP314-February-2022