मैं ‘बाल संस्कार’ और ‘ऋषि प्रसाद’ की सेवा करती हूँ । एक बार हम 2-3 बहनें स्कूलों में जाकर ‘ऋषि प्रसाद’ के सदस्य बना रही थीं । एक स्कूल की प्रधानाचार्या को ऋषि प्रसाद की महत्ता बताने लगीं तो उन्होंने कहा : ‘‘ऋषि प्रसाद ! यह तो आशाराम बापू की पत्रिका है !’’
मैंने कहा : ‘‘जी बिल्कुल, बापूजी की है ।’’
‘‘नहीं नहीं... इनका तो टी.वी. पर क्या-क्या दिखाते हैं ।’’
‘‘मैडम ! किसीने कुछ दिखा दिया तो आप उसको सही मान रही हैं और हम वर्षों से जो प्रत्यक्ष देखते आये हैं उसको आप सुनने तक को तैयार नहीं हैं ! सही-झूठ का निर्णय लेना हो तो दोनों पक्षों को देखना जरूरी होता है ।’’
फिर उनके मन में जो-जो सवाल थे उन्होंने पूछे और मैंने उनको सच्चाई से अवगत कराया । आश्रम का सत्साहित्य भी उन्हें दिखाया ।
वे बहुत संतुष्ट हुईं और बोलीं : ‘‘यह सच्ची बात तोे हमको पता ही नहीं थी । टी.वी. पर खबरों में जो देखा, मैं तो उसीको सच मान बैठी थी । आप मुझे आपकी पत्रिका दीजिये, मैं उसको जरूर पढ़ूँगी ।’’
उन्होंने अपने पूरे स्टाफ के लिए कुल 30 पत्रिकाएँ लीं और कहा : ‘‘हमारे स्कूल के बच्चों को भी आप अच्छे संस्कार दीजिये ।’’ उन्होंने मातृ-पितृ पूजन कार्यक्रम करने की भी अनुमति दी ।
आज भी हम 2-3 बहनें स्कूलों में जाकर विद्यार्थी शिविर का आयोजन करती हैं, हर सप्ताह बाल संस्कार केन्द्र चलाती हैं, ‘मातृ-पितृ पूजन दिवस’ मनवाती हैं तथा ऋषि प्रसाद के सदस्य बनाती हैं । हमें केवल अपना प्रयास करना है, बाकी तो परिस्थिति कैसी भी हो, गुरुकृपा से सब आसान हो जाता है ।
- मृदुल गुप्ता
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