ब्रह्मज्ञान से ग्रंथि (अज्ञान ग्रंथि) और उसके मूल - दोनों का नाश हो जाता है । आत्मा में आत्मा के अज्ञान से बुद्धि, मन, इन्द्रियाँ, विषय - इनके संयोग-वियोग, सुख-दुःख सब प्रतीत होते हैं । परंतु सम्पूर्ण प्रतीति वहीं दिखती है जहाँ वह नहीं है । अनंत में सांत (अंतयुक्त), चेतन में जड़, सत् में असत्, अनन्य में अन्य और अद्वितीय में अनेक दिखता है । सम्पूर्ण देश, काल, वस्तु अपने अभाव के अधिष्ठान में ही दिखते हैं (जैसे रस्सी में साँप) । अतः वे सब प्रतीतियाँ मिथ्या हैं और प्रतीति का अधिष्ठान (जिसमें वे भास रही हैं) देश-काल-वस्तु से अपरिच्छिन्न ब्रह्म है ।
इसी अधिष्ठान ब्रह्म के ज्ञान के लिए हम ब्रह्मविचार करते हैं । शांति से चुप बैठे रहने का नाम ब्रह्मविचार नहीं होता । ‘शांति’ विचार के जागरण की भूमि है परंतु विचार नहीं है । अज्ञान का नाश शांति से नहीं, विचार से होता है और विचार आत्मा व ब्रह्म की एकता का होना चाहिए ।
आत्मा ब्रह्म बनता नहीं, स्वयं ब्रह्म ही है । उसका ब्रह्मत्व केवल अज्ञान से आवृत है । ज्ञान द्वारा वह अज्ञान नष्ट हो जाता है और ब्रह्मत्व प्रकट हो जाता है । जो वस्तु ज्ञान से मिलती है वह पहले से ही मिली रहती है और जो वस्तु अज्ञान से अनमिली रहती है वह भी पहले से ही मिली होती है । अतः आत्मा का ब्रह्मत्व सिद्ध ही है, ज्ञान से केवल उसके अनमिलेपन का भ्रम निवृत्त होता है । यही कारण है कि ब्रह्म की प्राप्ति कर्म, उपासना या योग-समाधि से नहीं होती, केवल वेदांत-ज्ञान (ब्रह्मज्ञान) से होती है । आत्मा में अज्ञान त्रिकाल में है ही नहीं, अतः आत्मा में अज्ञान नित्यनिवृत्त है । ज्ञान से नित्यनिवृत्त की ही निवृत्ति होती है ।
कई आचार्य अज्ञान को नहीं मानते । बड़े घटाटोप (उग्रता, प्रबलता) के साथ वे अज्ञान का खंडन करते हैं । इसके लिए वे आश्रयानुपपत्ति, विषयानुपपत्ति, निमित्तानुपपत्ति, निवर्तकानुपपत्ति, निवृत्यनुपपत्ति आदि अनेक अनुपपत्तियों का वर्णन करते हैं । किंतु ऐसा करके वे अद्वैत मत का ही मंडन करते हैं क्योंकि अद्वैत मत में भी अज्ञान नित्यनिवृत्त ही है । यह तो केवल सबकी प्रत्यक्ष अनुभूति है कि ‘मैं अज्ञानी हूँ, ब्रह्म को नहीं जानता’ इसका प्रतिपादन करके अज्ञान सिद्ध करता है और परमार्थतः उसका अनुभव न होने से उसे नित्यनिवृत्त घोषित करता है । इसलिए ब्रह्मज्ञान से नित्यनिवृत्त अज्ञान की ही निवृत्ति होती है, किसी सत्य अज्ञान की नहीं ।
उपपत्ति यानी जिस विषय को सिद्ध करना है उसके समर्थन में तर्कसंगत युक्ति । उपपत्ति का विरोधी शब्द है अनुपपत्ति यानी उपपत्ति का अभाव (असंगति या असिद्धि) । अद्वैत वेदांत के सिद्धांत में अविद्या के स्वीकार के खंडन के लिए श्री रामानुजाचार्यजी ने जो आपत्तियाँ उठायी हैं, जिनके कारण वे अविद्या को स्वीकार नहीं कर सकते, वे हैं :
आश्रय अनुपपत्ति : अविद्या का आश्रय नहीं मिलता ।
विषय अनुपपत्ति : अविद्या का विषय नहीं मिलता ।
निमित्त अनुपपत्ति : अविद्या का निमित्त कारण नहीं मिलता ।
निवर्तक अनुपपत्ति : अविद्या को मिटानेवाला नहीं मिलता ।
निवृत्ति अनुपपत्ति : अविद्या का सम्पूर्ण रूप से मिटना सम्भव नहीं है ।