Rishi Prasad- A Spiritual Monthly Publication of Sant Sri Asharam Ji Ashram

बुद्धेः फलं अनाग्रहः

(पूज्य बापूजी की तात्त्विक अमृतवाणी)

सत्य अगर बुद्धि का विषय होता तो तीक्ष्ण बुद्धिवाले – मजिस्ट्रेट, न्यायाधीश, वकील आदि सत्यस्वरूप भगवान को, रब को अपनी तिजोरी में, अपनी जेब में रख लेते । संसारी कावे-दावे (चालबाजियों) में तीक्ष्ण बुद्धि काम आ सकती है लेकिन परमात्मा को पाना है तो पवित्र बुद्धि चाहिए । और बुद्धि वॉशिंग पाउडर से अथवा साबुन से पवित्र नहीं होती, लॉण्ड्री में पवित्र नहीं होती, वह तो व्रत-उपवास और सत्संग से पवित्र होती है और विलक्षण लक्षणों से सम्पन्न भी होती है ।

क्षिप्रं भवति धर्मात्मा... (गीता : 9.31)

आपकी बुद्धि जैसा-जैसा सोचती है वैसी-वैसी बन जाती है । सारी मुसीबतों, दुःखों और कष्टों का मूल बुद्धि की अपरिपक्वता है । इसे शास्त्रीय भाषा में बोलते हैं :

प्रज्ञापराधो मूलं सर्वरोगाणाम् ।

प्रज्ञापराधो मूलं सर्वदोषाणाम् ।

सारे रोगों और दोषों का मूल है बुद्धि की बेवकूफी । आपको पता है ? श्रीकृष्ण का अवतार और सामर्थ्य अद्भुत था, चतुर्भुजी हो जाते थे । ऐसे कृष्ण के जीवन में भी कई मित्र आये, यश गानेवाले और विरोधी हो गये । कई विरोधी सुधरकर शरणागत हो गये । श्रीकृष्ण की संतानें श्रीकृष्ण का विरोध करने लगीं परंतु उन्होंने कभी आग्रह नहीं किया कि मेरे बेटे ऐसा क्यों करते हैं ? सबकी अपनी-अपनी मति है, सबकी अपनी-अपनी गति है । मेरा भाई ऐसा है, मेरा बेटा ऐसा है, मेरा पति ऐसा है, ऐसा नहीं हो...आप यह बुद्धि का दुराग्रह छोड़ दीजिये ।

बुद्धि का फल क्या है ?

बुद्धेः फलं अनाग्रहः । बुद्धि का फल है भोगों में और संसार की घटनाओं में आग्रह नहीं रहना । भगवान शिवजी समाधि में रहनेवाले हैं और उनके घर में भी देखो, शिवजी नहीं चाहते थे फिर भी सती गयीं पिता के घर । शिवजी के ससुर होने पर भी दक्ष का सिर कट गया । तो जरूरी नहीं है कि जो आप चाहें वही हो । हम दुःखी क्यों होते हैं ? क्योंकि बुद्धि में दुराग्रह होता है : ऐसा होना चाहिए, ऐसा नहीं होना चाहिए ।

 हिरण्यकशिपु की इतनी भारी तपस्या थी कि ब्रह्माजी को खिलौना बना दिया, बोला : ‘‘ले बेटा ! खेल इनसे... ये चतुरानन ब्रह्माजी हैं । ले इनसे खेल तू ।’’  हिरण्यकशिपु अपने पुत्र प्रह्लाद को ऐसे-ऐसे खिलौने देकर अपने पक्ष में करना चाहता था लेकिन प्रह्लाद उन खिलौनों में उलझे नहीं, बोले : ‘‘पिताजी ! ये सब बाहर ले जाते हैं, मुझे तो अंतरात्मा में तृप्ति है ।’’

हिरण्यकशिपु चकित होकर पूछता : ‘‘बेटा ! तू इतना-सा है और तुझे इतना बड़ा ज्ञान कैसे ?’’

प्रह्लाद की माँ नारदजी के आश्रम में रहती थी क्योंकि पति जंगल में चले गये थे और महल पर इन्द्र ने धावा बोल दिया था । अब वह चिंता करती है कि मैं गर्भवती हूँ । नौ महीने हो गये, दसवाँ पूरा हो रहा है । इधर बाबा के आश्रम में मुझे प्रसूति होगी तो कैसा लगेगा ?’

नारदजी समझ गये । बोले : ‘‘बेटी ! तू चिंता न कर । मैं तुझे इच्छा-प्रसूति का वरदान देता हूँ । चाहे दस साल बीत जायें, चाहे पचास साल बीत जायें, जब भी तेरा पति आये और तू चाहे तभी प्रसूति होगी । बालक का कद नहीं बढ़ेगा, सत्संग के द्वारा उसकी बुद्धि बढ़ेगी । तू ध्यान से सत्संग सुन ।’’

नारदजी के वचन के अनुसार वर्षों तक प्रह्लाद गर्भ में रहा तो सवाल उठेगा कि कयाधू की बुद्धि क्यों नहीं बढ़ी ? कयाधू की बुद्धि बहुत विषयों में उलझी थी कि मेरे पति का क्या होगा ? मेरे ननिहाल में क्या होता होगा ? मेरे मायकेवालों का क्या होता होगा ? मेरे महल का क्या होता होगा ?’ जब आप बहुत सारी चीजों में अपनी बुद्धि को भटकाते हो तो बुद्धि क्षीण हो जाती है ।

हम घर छोड़कर गये तो क्यों गये ? बहुत विषयों से बचने के लिए । मौनमंदिर में किसी साधक को मैं भेजता हूँ तो चमत्कारिक लाभ होता है क्योंकि एक ही विषय में, जप-ध्यान में बुद्धि लगती है ।

अगर बुद्धि को भगवत्प्राप्ति के योग्य बनाना है तो फिल्में, अखबार, चुटकुले, टी.वी. के कार्यक्रम देखकर बुद्धि को बिखेरो मत । बच्चों को भी बहुत सारे सामान में उलझाओ मत । जो जरूरी है वह करो, बाकी को समेट लो । जब बुद्धि बाहर सुख दिखाती है तो क्षीण हो जाती है और जब अंतर्मुख होती है तो महान हो जाती है; तब उस बुद्धि को ऋतम्भरा प्रज्ञा बोलते हैं - ऋतमाने सत्य से भरी हुई बुद्धि ।

बुद्धि नष्ट कैसे होती है ?

जो काम है, वासना है कि यह मिल जाय, यह मिल जाय, यह पाऊँ, यह भोगूँ...’- इससे बुद्धि छोटी हो जाती है । अपने-आपमें अतृप्त रहना, असंतुष्ट रहना इससे बुद्धि कमजोर हो जाती है । किसीके प्रति राग-द्वेष करने से भी बुद्धि कमजोर हो जाती है ।

अगर देखने का मजा, स्वाद का मजा लेने की दृढ़ता बनी रही तो पतंगे की, मछली की योनि में जायेंगे । सुगंध के मजे की आदत पड़ गयी तो भौंरा बन जायेंगे । संत तुलसीदासजी कहते हैं :

अली पतंग मृग मीन गज, एक एक रस आँच ।

तुलसी तिनकी कौन गति, जिनको ब्यापे पाँच ।।

तो इन चीजों का मजा लेकर अपने को इनके अधीन बनाने से बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है । संसारी कामनाओं से बुद्धि बिगड़ती है, अतृप्ति होती है, राग-द्वेष होता है । स्पर्धा, भय व क्रोध आदि से बुद्धि कमजोर होती है ।

बुद्धि महान कैसे होती है ?

सत्य बोलने से बुद्धि विलक्षण लक्षणों से सम्पन्न होती है । विषयों से मजा लेकर अपने को उनके अधीन करने से बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है । इन चीजों का उपयोग करके अपने को परमात्म-रस से तृप्त करने से बुद्धि महान हो जाती है । भगवान के, गुरु के चिंतन से बुद्धि तृप्त होती है, राग-द्वेष मिटता है, कामनाएँ शांत होती हैं । भगवान और गुरु के चिंतन से सारे दोष चले जाते हैं ।

तो जिन कारणों से बुद्धि उन्नत होती है वे सत्संग में मिलते हैं और जिन कारणों से बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है उनसे बचने का उपाय भी सत्संग में मिलता है । इसलिए सत्संग से जो पुण्य, जो समझ और जो फायदा होता है वह साठ हजार वर्ष तपस्या करने से भी नहीं होता । इतना तप करनेवाले, संकल्प से खेत-खलिहान और समुद्र पर हुकूमत करनेवाले, वरुण, कुबेर और ब्रह्माजी जैसों को खिलौना बनाकर बेटे को देनेवाले हिरण्यकशिपु का सोने का हिरण्यपुर आज कहाँ है ? उसका राज्य कहाँ है ? देखा जाय तो हिरण्यकशिपु लौकिक जगत में बहुत पहुँचा हुआ व्यक्ति था । जब ऐसे पहुँचे हुए व्यक्ति का राज्य नहीं रहा तो हमारी बेईमानी की सम्पत्ति, भ्रष्टाचार का अथवा कहीं किसीको नोचकर इकट्ठा किया हुआ धन कब तक रहेगा ? हिरण्यकशिपु ने तपस्या से जो इतना पाया था वह भी मिट गया, मटियामेट हो गया तो आपकी चिंता से आपके कारखाने में बन-बनकर कितने रुपये बनेंगे ? आपकी दुकान में कितने बनेंगे और कब तक रहेंगे ? असंतुष्टि आदमी की बुद्धि को भ्रमित कर देती है । इसलिए गीताकहती है : संतुष्टः सततं योगी...

जो धन मिल गया मिल गया, चला गया तो उसको याद करके परेशान मत होओ । जो मान मिल गया मिल गया, अपमान हो गया तो हो गया । मान भी सपना है, अपमान भी सपना है उनको जाननेवाला परमेश्वर अपना है । बोले : मैं तो उसको दिन के तारे दिखा दूँगा, मैं तो छठी का दूध याद दिला दूँगा ।अरे, तेरा मन तेरा नहीं मानता है तो वे सब तेरा मानें ऐसा जरूरी है क्या ? ‘बहू कहना नहीं मानती, बेटा कहना नहीं मानता, फलाना कहना नहीं मानता...’ - यह बुद्धि की नालायकी है जो आपको परेशान करती है । माने-न माने वह जाने । हमारा मन भी हमारा कहना नहीं मानता तो दूसरे ने नहीं माना इसमें कौन-सी बड़ी बात हुई ? सब चलता रहता है । जब तक मानते हैं तो मानते हैं, नहीं मानें तो उनकी मर्जी !

अपने को दुःखी न करो । अपने को किसीका वैरी मत बनाओ । अपने को किसीका रागी मत बनाओ, किसीका द्वेषी मत बनाओ । अपने को तो आप जिसके हैं उसीको पानेवाला बनाओ । आप परमात्मा के हैं और परमात्मा को पा लो बस । इससे आपकी बुद्धि बहुत ऊँची हो जायेगी । कामनाएँ बढ़ें कि यह चाहिए, यह चाहिए... तो मन से कह दो :

सौ की कर दो साठ, आधा कर दो काट ।

दस पूरी करेंगे, दस छुड़ायेंगे, दस के जोड़ेंगे हाथ ।।

अभी तो निष्काम नारायण में आनंदित होने दो । ॐ... ॐ... ॐ... ॐ...

इससे आपकी बुद्धि में चिन्मय सुख आयेगा