व्यासपूनम का उद्देश्य
और सब पूनमें हैं लेकिन यह पूनम गुरुपूनम, बड़ी पूनम है । और उत्सव व पर्व उल्लास, आनंद के लिए मनाये जाते हैं लेकिन यह उत्सव और पर्व आत्मा-परमात्मा की एकता के लिए मनाया जाता है । इस दिन गुरु के दर्शन व मानस-पूजन से वर्षभर के सभी व्रत-पर्वों का पुण्यफल फलित हो जाता है । इसमें गुरु की ऊँचाई और शिष्य की श्रद्धा, गुरु की करुणा और शिष्य की तत्परता का मिलन होता है । दुःख-दरिद्रता, शोक-मोह का निवारण करने की जिसकी इच्छा हो उसे साधक या शिष्य कहते हैं और दुःख-दरिद्रता, शोक-मोह को निवृत्त करके मुक्ति प्रदान करने का सामर्थ्य जिनमें होता है उनको सद्गुरु बोलते हैं । हर व्यक्ति औरों के अनुभव से लाभान्वित होता है । विद्यालय और महाविद्यालयों में मास्टरों-प्राध्यापकों के सहारे अथवा किताबों के सहारे विद्यार्थी दूर का देखता है लेकिन वह प्रत्यक्ष ज्ञान को देखता है और जो स्वर्ग आदि की भावना करता है वह परोक्ष ज्ञान को जानता है । लेकिन ब्रह्मज्ञान न इन्द्रिय-प्रत्यक्ष है, न परोक्ष है । ब्रह्मज्ञान ‘साक्षात् अपरोक्ष’ है, जो सदा रहता है । जो इन्द्रिय-प्रत्यक्ष को भी जानता है और स्वर्ग के परोक्ष को भी जानता है वह ‘साक्षात् अपरोक्ष’ है । यह व्यासपूनम स्वर्गसुख अथवा संसारसुख नहीं, प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष नहीं, साक्षात् अपरोक्ष आत्मा का सुख जगाने का संदेश देती है ।
‘व्यास’ उसीको कहते हैं जो तुम्हारी बिखरी हुई वृत्तियों की व्यवस्था करते हैं । व्यासजी और व्यासस्वरूप ब्रह्मवेत्ता महापुरुषों का पूजन ज्ञानस्वरूप आत्मा का पूजन है । उनका आदर अपने जीवन का आदर है । शरीर को तो आदर बहुत मिला, वह आदर आखिर श्मशान में पूरा हो जाता है लेकिन आपके आत्मा का आदर करना आपके लिए जरूरी है और व्यासपूनम कहती है कि भाई ! जिससे जाना जाता है, उसको जानो, जिससे देखा जाता है उसको देखो, जिससे सुना जाता है उसीको सुनो और आप मुक्तस्वरूप हो जाओ । मौत आकर गला दबोच दे और सब यहाँ धरा रह जाय उसके पहले वहीं पहुँचो जहाँ मौत की दाल नहीं गलती है ।
गुरु समान दाता नहीं, जाचक सिष्य समान ।
तीन लोक की सम्पदा, सो गुरु दीन्हा दान ।।
तीन लोक की सम्पदा गुरु दान में दे डालते हैं । तीन लोक के स्वामी को हमारे हृदय में जगा देते हैं । ऐसे ब्रह्मज्ञानी गुरुओं के चरणों में हमारा बार-बार प्रणाम है, चाहे फिर वे व्यास के रूप में हों, चाहे दत्तात्रेयजी के रूप में हों, चाहे सनकादिक, शुकदेवजी, अष्टावक्रजी के रूप में हों, चाहे वसिष्ठजी, पराशरजी के रूप में हों, चाहे आद्य शंकराचार्यजी, कबीरजी, नानकजी, लीलाशाहजी के रूप में हों अथवा व्यापक ब्रह्मरूप में हों ।
गुरुपूर्णिमा का पावन संदेश
इस गुरुपूनम का संदेश यह है कि मुक्ति हमारा लक्ष्य है, जन्मसिद्ध अधिकार है । मुक्त होना यह सबके अधिकार में है । साधन साध्य से अभिन्न है और साधन सब कोई कर सकते हैं । परमात्मप्राप्ति में अपने को अनधिकारी न मानो, अयोग्य न मानो और परमात्मा से दूरी न मानो, परमात्मप्राप्ति में निराशा के विचार को न आने दो । साध्य की प्राप्ति करने में साधक स्वाधीन व समर्थ है । ज्यों-ज्यों राग-द्वेष क्षीण होता जायेगा त्यों-त्यों शांति बढ़ती जायेगी, ज्यों-ज्यों शांति बढ़ेगी त्यों-त्यों सामर्थ्य आयेगा । शांति स्वाधीनता और सामर्थ्य की जननी है । लेकिन सामर्थ्य और शांति का उपयोग अगर नश्वर चीजों में करेगा तो कमाया-खाया, संग्रह किया... अंत में छोड़कर मर जायेगा, समय नष्ट हो जायेगा । सामर्थ्य का उपयोग परम समर्थ तत्त्व को जानने में करे तो इसी जन्म में परम समर्थ तत्त्व को जान सकता है ।
जो भी कुछ कर्म करो, न द्वेष से प्रेरित होकर करो न राग से प्रेरित हो के करो, परमात्मा की प्रसन्नता के भाव से प्रेरित हो के तुम कर्म करोगे तो गुरुपूनम वास्तव में तुम्हारे लिए परम गुरु-तत्त्व का प्रसाद प्रकट कर देगी ।
अनंत गुना फलदायी मानस-पूजा
व्यासपूर्णिमा के दिन इस उत्सव-निमित्त साधक को व्रत करना चाहिए और वह व्रत तब तक बना रहे जब तक उस सच्चिदानंदस्वरूप परमात्मा की ठीक से स्नेहमयी पूजा सम्पन्न नहीं होती । षोडशोपचार से पूजा करने का सामान्य पूजा से कई गुना ज्यादा फल माना गया है परंतु मानस-पूजा का प्रभाव और अधिक माना गया है । तो पूर्णिमा के एक दिन पहले ही रात्रि को सोते समय संकल्प करें कि ‘कल सुबह हम नींद में से उठते ही गुरु के दिये हुए ज्ञान और गुरुस्वरूप परमात्मा का चिंतन करेंगे । परमेश्वर-तत्त्व जिनमें प्रकटा है उन सद्गुरुओं को तो देखा भी है । मन-ही-मन उनका मानसिक पूजन करेंगे ।’
गुरुपूनम की सुबह उठे और मन-ही-मन गुरुदेव का मानसिक पूजन करे । फिर नहा-धोकर विधिवत् धूपबत्ती, प्राणायाम, गुरुगीता का पाठ आदि करके बाह्य पूजन धूपबत्ती या षोडशोपचार से भी कर सकते हैं और फिर मानसिक पूजन करिये । पूजन तब तक बार-बार करते रहें, जब तक आपका पूजन गुरु तक नहीं पहुँचा । पूजन पहुँचने का एहसास होगा, अष्टसात्त्विक भावों में से कोई-न-कोई भाव भगवत्कृपा से आपके हृदय में प्रकट होगा और जब कोई भाव प्रकट हो जाय अष्टभावों में से तो समझ लेना अब मानसिक पूजन, उपवास हमारा सफल हो गया । आप इस प्रकार गुरुपूर्णिमा का महोत्सव व्यावहारिक रूप के साथ ही आध्यात्मिक रूप से भी मना के इसका अनंत गुना फायदा लें - ऐसी मैं आपको सलाह देता हूँ, इससे आपको विशेष लाभ होगा । - पूज्य संत श्री आशारामजी बापू
* Ref: ISSUE283-JULY-2016