Rishi Prasad- A Spiritual Monthly Publication of Sant Sri Asharam Ji Ashram

हे मन ! तू परमात्मा में लग

एतस्माद्विरमेन्द्रियार्थगहनादायासकादाश्रय

श्रेयोमार्गमशेषदुःखशमनव्यापारदक्षं क्षणात् 

स्वात्मीभावमुपैहि सन्त्यज निजां कल्लोललोलां गतिं

मा भूयो भज भङ्गुरां भवरतिं चेतः प्रसीदाधुना ।।

हे चित्त ! श्रोत्रादि इन्द्रियों के शब्दादि विषयरूपी वन से विश्राम ले अर्थात् इन लौकिक वस्तुओं से मुँह मोड़ व जिससे क्षणभर में ही सारे दुःखों की निवृत्ति हो जाती है ऐसे ज्ञानमार्ग का अनुसरण करके स्वस्वरूप का अनुसंधान करने में लग । शांत भाव अपना ले और तरंग-सी अपनी चंचल गति को छोड़ दे । इस नाशवान संसार की इच्छा का बार-बार सेवन मत कर अपितु अब प्रसन्न और स्थिर हो जा (वैराग्य शतक : 63)

शास्त्र कहते हैं कि मन ही मनुष्य के बंधन और मोक्ष का कारण है भगवान श्रीकृष्ण ने भी कहा है : ‘‘संकल्प से उत्पन्न होनेवाली सम्पूर्ण कामनाओं को निःशेषरूप से त्यागकर और मन के द्वारा इन्द्रियों के समुदाय को सभी ओर से भलीभाँति रोक के क्रम-क्रम से अभ्यास करता हुआ उपरति को प्राप्त हो तथा धैर्ययुक्त बुद्धि के द्वारा मन को परमात्मा में स्थित करके परमात्मा के सिवा और कुछ भी चिंतन न करे ’’  (गीता : 6.24-25)

शुद्ध एवं पवित्र मन ईश्वरप्राप्ति कराता है जबकि अपवित्र एवं अशुद्ध मन पतन की खाई में धकेल देता है । अतः योगी भर्तृहरिजी उपरोक्त श्लोक में हमें समझा रहे हैं कि हम अपने मन को सही मार्ग पर चलायें ।

योगवासिष्ठ में श्रीरामचन्द्रजी मन की जटिलता का वर्णन करते हुए महर्षि वसिष्ठजी से कहते हैं : ‘‘हे मुनिवर ! सम्पूर्ण पदार्थों का कारण चित्त ही है; उसके अस्तित्व में तीनों लोकों का अस्तित्व है और उसके क्षीण होने पर तीनों लोक नष्ट हो जाते हैं । इसलिए प्रयत्नपूर्वक मन की चिकित्सा करनी चाहिए अर्थात् रोग की तरह चित्त का अवश्य परित्याग करना चाहिए । जैसे विंध्याचल आदि श्रेष्ठ पर्वतों से अनेक वनों की उत्पत्ति होती है, वैसे ही मन से ही ये सैकड़ों सुख-दुःख उत्पन्न हुए हैं । ज्ञान से चित्त के क्षीण होने पर वे अवश्य ही नष्ट हो जाते हैं, ऐसा मेरा निश्चय है ’’

मुक्तिकोपनिषद् (2.17) में आता है :

सम्यगालोचनात्सत्याद्वासना प्रविलीयते 

वासनाविलये चेतः शममायाति दीपवत् ।।

भलीभाँति विचार करने से और सत्य के अभ्यास से वासनाओं का नाश हो जाता है । वासनाओं के नाश से चित्त उसी प्रकार विलीन हो जाता है जैसे तेल के समाप्त हो जाने पर दीपक बुझ जाता है 

पूज्य बापूजी की अमृतवाणी में आता है : ‘‘मन से कहो कि हे मन ! तू धन में लगा, उसके पहले तू काम-विकार में लगा, उसके पहले तू खिलौनों में लगा... सब खिलौने चले गये, काम-विकार के दिन चले गये और धन भी चला गया परंतु जो कभी नहीं जाता, हे मेरे मन ! तू उस परमात्मा में लग । तू शरीर और आत्मा के बीच का एक सेतु है । अब तू जागा है यह तो ठीक है परंतु यदि उलटी-सीधी चाल चलेगा तो संसार की झंझटें लगी ही रहेंगी । इसलिए तू अपने को कर्ता मानकर संसार के बोझ को न तो चढ़ाना न ही बढ़ाना परंतु ईश्वर को कर्ता-धर्ता मान के, स्वार्थरहित हो के सेवाभाव से कर्म करना और प्रसन्न रहना । अहंकारयुक्त कर्म करके अज्ञान को बढ़ाना नहीं अपितु विनम्र हो के आत्मज्ञान पाने का यत्न करना ’’