- पूज्य सतं श्री आशारामजी बापू
सभी वस्तुएँ नश्वर एवं छायामात्र हैं अतः निर्भय रहो । समस्त दृश्य पदार्थ परिवर्तनशील हैं । परिवर्तने नस् धातु स्यात् । परिवर्तनशील को नाशवान कहा जाता है । वास्तव में तत्त्वरूप से किसीका नाश नहीं होता । जैसे सागर में लहरें, बुदबुदे नष्ट होते दिखते हैं पर वास्तविक दृष्टि से, जलरूप से उनका नाश नहीं होता, ऐसे ही दृश्य पदार्थों में परिवर्तन होता दिखता है पर तत्त्वरूप से तुम वह सत्य हो जिसमें किसी प्रकार का परिवर्तन सम्भव नहीं है । तुम स्पंदनरहित (आत्मा) हो ।
तुम्हारा रूप (शरीर) एक स्वप्न है । इसको जानो और संतुष्ट रहो । ईश्वर के अरूपत्व में तुम्हारा वास्तविक स्वरूप स्थित है ।
अपने मन को आत्मप्रकाश का अनुगमन करने दो । वासनाएँ प्रेरित करती हैं, सीमा की दीवार खड़ी है परंतु तुम मन नहीं हो, वासनाएँ तुम्हारा स्पर्श तक नहीं कर सकतीं । एकमात्र तुम्हीं विद्यमान हो, कोई सीमा नहीं है ।
तुम्हारी स्थिति सर्वज्ञता और सर्वव्यापकता में है । याद रखो, जीवन एक खेल है । तुम अपना हिस्सा खेलो, अवश्य खेलो - ऐसा ही नियम है । फिर भी न तो तुम खिलाड़ी हो, न खेल है, न नियम हैं । स्वयं जीवन भी तुम्हें सीमित नहीं कर सकता । जीवन स्वप्न के तत्त्वों से बना है । तुम स्वप्न नहीं हो । तुम स्वप्नरहित हो तथा असत्य के स्पर्श से परे हो । इसको जानो... तुम स्वतंत्र हो... ।
जीवन बहुत छोटा है, वासनाएँ प्रबल हैं । ईश्वर के लिए कुछ-न-कुछ समय अवश्य दो । वह बहुत कम चाहता है - केवल इतना ही कि तुम स्वयं को, अपने-आपको जानो क्योंकि वस्तुतः अपने को जानते हुए तुम उसे जान जाओगे ।
परमात्मा और आत्मा एक ही हैं । कुछ कहते हैं कि ‘हे मनुष्य ! याद रख, तू मिट्टी है ।’ यह शरीर के लिए सत्य है किंतु अधिक उन्नत, शक्तिशाली परम सत्य और परम पवित्र अनुभव बतलाता है कि ‘हे मनुष्य ! याद रख, तू आत्मा है ।’ परमात्मा कहता है कि ‘केवल तू ही अविनाशी है, और सब नश्वर है ।’ कितना ही बड़ा रूप हो, उसका नाश हो जाता है । समस्त रूपों के साथ मृत्यु और नाश लगे हुए हैं । विचार परिवर्तनशील हैं । व्यक्तित्व नाम-रूप से ओत-प्रोत हैं । जीवात्मन् ! इसलिए इनसे दूर हो । याद रखो कि तुम नाम-रूप से परे आत्मा हो । केवल इसीमें तुम्हारा अमरत्व है, केवल इसीमें तुम शुद्ध और पवित्र हो ।
स्वामी बनने का प्रयत्न मत करो, तुम्हीं स्वामी हो । तुम्हारे लिए ‘बनना’ नहीं है । उन्नति करने का ढंग चाहे जितना ऊँचा हो परंतु समय आयेगा तब तुम जानोगे कि उन्नति समय के अंदर है और पूर्णता का अनुभव समय के अंत में है (अर्थात् तीनों कालों का अभाव है और एकमात्र अकाल तत्त्व का ही अस्तित्व है यह जान लेने पर पूर्णता का अनुभव होगा) । तुम समय के नहीं, अनंत के हो । यदि परमात्मा है तो ‘तत्त्वमसि’ - वही तुम हो, विभु-व्याप्त । तुम्हारे अंदर जो सबसे महान है, उसको जानो । सबसे महान की उपासना करो । सबसे उन्नत उपासना का रूप वह ज्ञान है जो बतलाता है कि ‘तुम और वह (सबसे महान) एक ही हैं ।’ सबसे महान क्या है ?
हे जीव ! उसे तुम परमात्मा कहते हो । समस्त सपनों को विस्मरण की अवस्था में डाल दो । यह सुनकर कि ‘परमात्मा तुम्हारे अंदर है और वही तुम हो... ।’ इसे समझो । समझकर देखो । देखकर जानो । जानकर अनुभव करो । तब ‘तत्त्वमसि’ - वही तुम हो, विभु-व्याप्त ।
संसार से असंग हो जाओ । यह स्वप्न है । यह संसार और शरीर - वस्तुतः ये ही दोनों इस घोर स्वप्न के आधार हैं । क्या तुम स्वप्न देखते ही रहोगे ? क्या तुम इस स्वप्न के विकट बंधन में बँधे ही रहोगे ? उठो और जागो, जब तक लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाय, रुको मत ।
विषय-वासना, विकारों में फँसो मत । ‘सोऽहं... शिवोऽहं...’ के अमृतमय अनुभव में जगते हुए शांति, मस्ती बढ़ाते रहो । हलके विचारों, वासनाओं से दीन-हीन हो गया है जीवन । उत्तम विचार और ‘सोऽहम्’स्वरूप की समझ और स्थिति से अपने आत्मवैभव को पा लो ।