Rishi Prasad- A Spiritual Monthly Publication of Sant Sri Asharam Ji Ashram

मेरा राज्य ले लो किंतु मेरे संत को रिहा कर दो

कैवर्त राज्य के संत देवलाश्वजी को पड़ोस के राजा विश्वजित के सैनिक जासूस समझकर ले गये और राजा ने उन्हें फाँसी की सजा सुनायी ।

कैवर्त के लोगों ने यह बात सुनी तो खाना-पीना छोड़ दिया । भगवान को पुकारने लगे : हे भगवान ! कुछ भी हो, तुम्हारे प्यारे निर्दोष संत के साथ ऐसा अन्याय न हो !कैवर्त-सम्राट तोमराज शांत हुए, सोचने लगे कि अब क्या करें ?’

एक अनजान व्यक्ति विश्वजित के दरबार में पहुँचा, बोला : ‘‘मैं कैवर्त-सम्राट का संदेशा लाया हूँ । 2 करोड़ स्वर्णमुद्राएँ ले लो और हमारे संत को रिहा कर दो ।’’

विश्वजित : ‘‘2 करोड़ ! एक व्यक्ति के लिए ! आखिर तो उसमें है क्या ?’’

‘‘वे व्यक्ति नहीं हैं, वे संत हैं; उनके अज्ञान का अंत हो गया है । ऐसे पुरुष की उपस्थितिमात्र से लोगों का कल्याण होता रहता है ।’’

‘‘शत्रु का जासूस चाहे संत हो, हम कैसे छोड़ सकते हैं ?’’

‘‘कैवर्त-सम्राट ने प्रार्थना भी भेजी है कि 2 करोड़ स्वर्णमुद्राएँ अगर कम लगें तो मैं अपना राज्य देने से भी चूकूँगा नहीं लेकिन हमारे देश के संत की हत्या हम बर्दाश्त नहीं करेंगे ।’’

‘‘तुम तो संदेशवाहक हो, मैं कैसे विश्वास करूँ ?’’

आगंतुक ने दायाँ हाथ विश्वजित के नजदीक कर दिया । अँगूठी में लिखा था : कैवर्त-सम्राट तोमराज !विश्वजित सिंहासन से उठा और गले लगाया : ‘‘सम्राट तुम ! संत को रिहा कराने के लिए अपने प्राणों की भी बाजी लगाकर आये हो ! तुमने मेरी आँखें खोल दीं । जिसके रक्षक संत हैं, उसका मित्र बनने से भी हमारा कल्याण होगा ।’’

तब से दोनों पड़ोसी राज्य मित्र हो गये ।

ऐसा ही एक दूसरा प्रसंग भी है । ईरानियों और तुर्कियों के बीच युद्ध चालू हुआ था । वे आपस में भिड़े तो ऐसे भिड़े कि कोई निर्णायक मोड़ नहीं आ रहा था । तुर्कियों को ईरानियों से लोहा लेना बड़ा भारी पड़ रहा था । इतने में ईरान के सूफी संत फरीदुद्दीन अत्तार युद्ध की जगह से गुजरे तो तुर्कियों ने उन्हें जासूसी के शक में पकड़ लिया । अब ईरान के संत हैं तो गुस्से में द्वेषपूर्ण निर्णय किया कि इन्हें मृत्युदंड दिया जायेगा, अपने देश के शत्रु हैं ।ईरान के अमीरों ने सुना तो कहला के भेजा : ‘‘इन संत के वजन की बराबरी के हीरे-जवाहरात तौल के ले लो लेकिन हमारे देश के संत को हमारी आँखों से ओझल न करो ’’

तुर्क-सुल्तान : ‘‘हूँह... !’’

फिर ईरान के शाह ने कहा : ‘‘हीरे-जवाहरात कम लगें तो यह पूरा ईरान का राज्य ले लो लेकिन हमारे देश के प्यारे संत को फाँसी मत दो ।’’

‘‘आखिर इनमें क्या है ? देखने में तो ये एक इंसान दिखते हैं !’’

‘‘इंसान तो दिखते हैं लेकिन रब से मिलानेवाले ये महापुरुष हैं । ये चले गये तो असलियत के बारे में अँधेरा हो जायेगा । ब्रह्मवेत्ता संत का आदर मानवता का आदर है, इंसानियत का आदर है, मनुष्यता के ज्ञान का आदर है, विकास का आदर है । ऐसे ब्रह्मवेत्ता संत धरती पर कभी-कभार होते हैं । मेरा ईरान का राज्य ले लो किंतु मेरे संत को रिहा कर दो ।’’

तुर्क-सुल्तान भी आखिर इंसान था, बोला : ‘‘तुमने आज मेरी आँखें खोल दीं । संतों के वेश में खुदा से मिलानेवाले इन औलिया, फकीरों का तुम आदर करते हो तो मैं तुम्हारा राज्य लेकर इनको छोड़ूँ ! नहीं, आओ हम गले लगते हैं । इन संत की कृपा से हमारा वैर मिट गया ।’’

भाग होया गुरु संत मिलाया ।

प्रभ अविनाशी घर में पाया ।।

जितनी देर ब्रह्मज्ञानी संतों के चरणों में बैठते हैं और वचन सुनते हैं वह समय अमूल्य होता है । उसका पुण्य तौल नहीं सकते हैं ।

तीरथ नहाये एक फल, संत मिले फल चार ।

संत के दर्शन-सत्संग से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष - चारों फल फलित होने लगते हैं । उन्हीं संत से अगर हमको दीक्षा मिली तो वे हमारे सद्गुरु बन गये । तब तो उनके द्वारा हमको अनंत फल होता है, वह फल जिसका अंत न हो, नाश न हो 

सद्गुरु मिले अनंत फल, कहत कबीर विचार ।।

पुण्य का फल सुख भोग के अंत हो जाता है, पाप का फल दुःख भोग के अंत हो जाता है पर संत के, सद्गुरु के दर्शन और सत्संग का फल न दुःख दे के अंत होता है न सुख दे के अंत होता है, वह तो अनंत से मिलाकर मुक्तात्मा बना देता है ।              

[RP-299-November-2017]