Rishi Prasad- A Spiritual Monthly Publication of Sant Sri Asharam Ji Ashram

विलक्षण है सर्वसमर्थ गुरुदेव का संस्कृतिप्रेम व परदुःखकातरता

ऐसे सर्वांतर्यामी, करुणानिधान सद्गुरु का क्या और कैसे वर्णन करूँ ! गतांक से आगे
 

पिछले अंक में आपने पढ़ा कि किस प्रकार सुशीला बहन ने अहमदाबाद से दिल्ली जाते समय यात्रा में हुए संवाद में गुरुदेव के अंतर्यामीपने का प्रत्यक्ष अनुभव किया । वे आगे बताती हैं :

मातृभाषाराष्ट्रभाषा व संस्कृति के प्रति महत्त्वबुद्धि

गुरुदेव ने मेरी पढ़ाई के बारे में पूछा । मैंने कहा : ‘‘बापूजी ! बचपन में मैं कॉन्वेंट स्कूल में पढ़ती थी ।’’

पूज्यश्री बोले : ‘‘अच्छा ! कॉन्वेंट में कैसे पढ़ाते हैं, क्या-क्या कराते हैं ?’’

‘‘जी, वहाँ अंग्रेजी और उनके धर्म की शिक्षा पर बहुत जोर होता है । मैं तीसरी में पढ़ती थी तब की बात है । कॉन्वेंट में हिन्दू बच्चों के लिए नैतिक शिक्षा (Moral Science) और ईसाई बच्चों के लिए कैटेकिज्म (Catechism) विषय होते थे । बच्चों को कैटेकिज्म विषय पढ़ाने के लिए उनको चर्च में ले के जाते थे, जहाँ उन्हें क्रिश्चियनिटी, बाइबिल, जीसस और क्रिश्चियन जीवनशैली के बारे में संस्कारित किया जाता था । चर्च में कक्षा के उपरांत बच्चों को बड़ी आकर्षक दिखनेवाली, लुभावनी चीजें देते थे, जैसे - जीसस, मैरी, जोसेफ आदि के विभिन्न तरह के फोटो और मूर्तियाँ, अलग-अलग रंगों की अँधेरे में चमकनेवाली रोजरी की माला आदि । क्रिश्चियन बच्चे ये चीजें लेकर क्लास में आते तो छोटे-छोटे हिन्दू बच्चे इन चीजों को देख के बहुत जल्दी आकर्षित हो जाते थे । क्रिश्चियन बच्चे बोलते थे कि क्रिश्चियनिटी फॉलो करोगे तो तुमको भी ये सब चीजें मिलेंगी ।बालस्वभाव मूलतः जिज्ञासु होने से हिन्दू बच्चे आपस में चर्चा करते थे कि चर्च में तो बहुत अच्छा होता है । नयी-नयी सुंदर चीजें मिलती हैं, हम भी क्रिश्चियन होते तो कितना अच्छा होता ! हमें भी यह सब मिलता ।

कॉन्वेंट में प्रत्येक विद्यार्थी को अनिवार्यरूप से हर सप्ताह बेचने के लिए 10-10 पैसे की 10 बुकलेट्स देते थे, जिनमें जीसस, मैरी, जोसेफ की आकर्षक तस्वीरें व छोटी-छोटी कहानियाँ छपी होती थीं । हमें उस सप्ताह के अंदर ही 1 रुपया जमा करने को बोलते थे ।’’

पूज्यश्री बोले : ‘‘देखो, कैसे हैं ये लोग ! हमारे ही बच्चों से हमारी ही संस्कृति की जड़ें कटवाते हैं । उनकी पुस्तिकाएँ बँटवाकर उनका प्रचार-प्रसार हमसे ही करवाते हैं । कैसे हमारे बच्चों को लालायित करते हैं । हमें भी बच्चों में हमारी संस्कृति के प्रचार-प्रसार के लिए कुछ करना चाहिए न !’’

मैंने कहा : ‘‘जी, हम लोग भी एक छोटी-सी पत्रिका निकालेंगे और उसको बाँटेंगे ताकि हमारी संस्कृति का प्रचार-प्रसार हो ।

एक बार बचपन में उनसे प्रभावित होकर अज्ञानवश मैंने माँ को कहा था कि ‘‘हम लोग भी क्रिश्चियन बन जायेंगे तो हमें भी बड़ी सुंदर-सुंदर चीजें मिलेंगी ।’’

माँ ने कहा : ‘‘नहीं, हमें अपने संस्कार नहीं छोड़ने हैं । अपना धर्म बहुत महान और आध्यात्मिक ज्ञान से भरपूर है ।’’

गुरुदेव बोले : ‘‘देख, तेरी माँ तो विशेष समझदार है इसलिए उसने तेरे को बचा लिया । आजकल के माँ-बाप तो खुद ही पाश्चात्य कल्चर के प्रभाव में बहे जा रहे हैं । उनको खुद को ही अपनी संस्कृति के बारे में पता नहीं है । मैं ऐसा नहीं कहूँगा कि हमारे बच्चों को अंग्रेजी न आये लेकिन उनमें महत्त्वबुद्धि अपनी मातृभाषा के लिए होनी चाहिए, अपनी हिन्दी भाषा के लिए होनी चाहिए । हमारी संस्कृति में तो विश्व को मार्गदर्शन देने के लिए बहुत सारी अच्छी चीजें हैं । उनके पास तो देने के लिए कुछ भी नहीं है ।

हम अपनी सनातन संस्कृति की अच्छी चीजें व आध्यात्मिक ज्ञान बच्चों को देंगे । जब हम उन्हें उन स्कूलों की तुलना में अधिक अच्छा देंगे तब अपनी संस्कृति के ज्ञान की ओर लोग आयेंगे । हम बच्चों के लिए छोटी-छोटी पुस्तिकाएँ निकालेंगे । हम सब मिलकर बच्चों को बचायेंगे ।’’

मैंने देखा, यह बोलते समय करुणासागर गुरुदेव का हृदय इतना भर आया था कि गुरुदेव के नेत्रकमल अश्रुपूर्ण हो गये थे । गुरुदेव बहुत गम्भीर हो गये थे । पूज्य बापूजी के हृदय में इस बात से बड़ी पीड़ा हुई कि हमारे महान सनातन धर्म के बच्चों को, हमारी श्रेष्ठतम भारतीय संस्कृति के भावी कर्णधारों को भयंकर षड्यंत्र के तहत अपनी महान संस्कृति से विमुख किया जा रहा है और उन बच्चों को पता ही नहीं है कि वे अपना सर्वस्व खो रहे हैं ।

गुरुदेव बोले : ‘‘बच्चों को बचाने के कार्य में तू सहभागी बनेगी ?’’

मैंने कहा : ‘‘जी ! मैं बनूँगी सहभागी ।’’

तब जितनी मेरी समझ थी उसके अनुसार मैंने उत्तर दे दिया किंतु आज समझ में आ रहा है कि सच्ची बात तो यह है कि सब कुछ करने-करानेवाले तो गुरुदेव ही हैं । सबके पीछे सत्ता, स्फूर्ति, सामर्थ्य तो गुरु-तत्त्व का ही है । वास्तव में तो जो कोई गुरुदेव के दैवी कार्य में अथवा भारतीय संस्कृति की सेवा में सहभागी हो पाता है वह अपने बल से नहीं अपितु ईश्वरीय सत्ता की प्रेरणा एवं बल से ही हो पाता है । दैवी कार्य तो परमात्मदेव ही सम्पन्न करते हैं, आप-हम तो निमित्तमात्र हो जाते हैं, उनकी विश्वमांगल्यकारी लीला के पात्र हो जाते हैं और आत्मसंतोष का निर्दोष, शुद्ध सुख पाते-पाते ईश्वरमय होते जाते हैं ।

गुरुदेव का संकल्प करीब 5 वर्ष पहले पूरा हुआ । जनवरी 2016 में बच्चों के लिए विशेष गुरुकुल दर्पणनाम की मासिक पत्रिका शुरू हुई ।

जीवन में परदुःखकातरता अनिवार्य

बातचीत के दौरान मैंने पूज्यश्री से कहा : ‘‘आप अनुमति दें तो मुझे एक बात बतानी है ।’’

स्वीकृति मिलने पर मैंने कहा : ‘‘बापूजी ! समिति के एक काका ने चिट्ठी भेजी है । उसमें लिखा है कि मेरी बेटी के यहाँ गुरुदेव की कृपा से 3 बेटियों के बाद बेटा हुआ लेकिन वह पैदा होते ही गुजर गया । गुरुदेव की कृपा से मेरी बेटी की जान बच गयी परंतु वह बहुत दुःखी हो गयी है ।’’

इतना सुनते ही बापूजी को बड़ी तकलीफ हुई । पूज्यश्री ने आँखें बंद कीं और फिर खोलकर बोले : ‘‘उनको कहना कि चिंता न करें । एक साल के अंदर सब ठीक हो जायेगा । उससे भी दिव्य आत्मा दूँगा । अच्छा, तेरे को अपनी क्या बात बतानी थी ?’’

मैंने कहा : ‘‘यही बताना था बापूजी !’’

पूज्यश्री बड़े प्रसन्न हुए और बोले : ‘‘अच्छा,