Rishi Prasad- A Spiritual Monthly Publication of Sant Sri Asharam Ji Ashram

संसार-बंधन से मुक्त होने का उपाय : सद्गुरु-सेवा

सद्गुरु की महिमा बताते हुए भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं : ‘‘हे उद्धव ! सद्गुरु के लक्षण बताते समय शब्द कम पड़ जाते हैं । जो सनातन पूर्णब्रह्म ही हैं, उन्हें लक्षण की क्या आवश्यकता है ? फिर भी एक लक्षण बताने का स्फुरण आता है कि उनमें सर्वत्र शांति दिखाई देती है । उद्धव ! वह शांति ही समाधान है, ब्रह्मज्ञान है और पूर्णब्रह्म है !’’

सद्गुरु की विलक्षणता सुनकर शिष्य की कैसी दशा होती है, इस स्थिति का वर्णन करते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं : ‘‘सद्गुरु की ऐसी स्थिति जानकर शिष्य के मन में गुरुभक्ति के प्रति प्रीति और भी अधिक बढ़ गयी । इसलिए वह गुरु की खोज में निकल पड़ा, उसका अंतःकरण उसे विश्राम नहीं करने देता था । आठों पहर वह गुरु के लक्षणों का ही चिंतन करने लगा, ‘उस सर्वसमर्थ को मैं कब देख पाऊँगा ? मेरा यह पाश कब छूटेगा ? मन को परम शांति कब प्राप्त होगी ?’ इस प्रकार वह सद्गुरु के लिए पिपासा से भर गया । देखते-देखते यह आयुष्य समाप्त होने को आया है लेकिन मेरी अभी सद्गुरु से भेंट नहीं हो रही, यह मनुष्य-देह समाप्त होते ही सब कुछ डूब जायेगा ।’ - ऐसा उसे लगने लगता है ।

गुरु का सिर्फ नाम सुनते ही वह मन से आगे भागने लगता है और उस वार्ता के ही गले लग जाता है, उसकी आतुरता इतनी बढ़ जाती है ! यदि सद्गुरु से प्रत्यक्ष भेंट नहीं होती तो वह मन से ही गुरुनाथ की पूजा करने लगता है और परम भक्ति से पूजा करते समय उसका प्रेम इतना अधिक उफन उठता है कि वह हृदय में नहीं समा पाता । नित्यकर्म करते समय भी वह एक क्षण के लिए भी गुरु को नहीं भूलता । वह निरंतर गुरु-गुरुका जप करता रहता है । हे उद्धव ! गुरु के अतिरिक्त वह अन्य किसीका चिंतन नहीं करता । उठते-बैठते, खाते, सोते समय वह मन में गुरु का विस्मरण नहीं होने देता । जाग्रत तथा स्वप्नावस्था में भी उसे गुरु का निदिध्यासन लगा रहता है । देखो ! केवल गुरु का स्मरण करते ही उसमें भूख-प्यास सहने का सामर्थ्य आ जाता है । वह घर-बाहर के सुख को भूलकर सदा परमार्थ की ही ओर उन्मुख रहता है । सद्गुरु के प्रति जिसका ऐसा प्रेम रहता है, उसकी आस्था प्रतिस्पर्धा से बढ़ती ही जाती है । उसे गुरु के रूप में तत्काल चिद्घन चैतन्य ही दर्शन देता है । उत्कंठा जितनी अधिक रहती है, उतनी ही भेंट अधिक निकट होती है । भेंट के लिए साधनों में विशेष उत्कंठायही प्रमुख साधन है । अन्य कितने ही बड़े साधनों का प्रयोग क्यों न करें लेकिन आत्मज्ञान का अल्पांश भी हाथ नहीं लगेगा लेकिन यदि सद्गुरु के भजन में आधी घड़ी भी लगा देंगे तो आत्मज्ञान की राशियाँ झोली में आ जायेंगी ।

सद्गुरु के भजन में लगने से मोक्ष भी चरणों पर आ पड़ता है । लेकिन गुरु का भक्त उसे भी स्वीकार नहीं करता क्योंकि वह श्रीचरणों में ही तल्लीन रहता है । श्रीगुरु-चरणों का आकर्षण ऐसा होता है कि उसके सामने मोक्षसुखका भी विस्मरण होता है । जिनकी रुचि गुरु-भजन में नहीं होती, वे ही संसार के बंधन में पड़ते हैं । संसार का बंधन तोड़ने के लिए सद्गुरु की ही सेवा करना आवश्यक है । सद्गुरु की सेवा ही मेरा भजन है क्योंकि गुरु में और मुझमें कोई भेदभाव नहीं है । हे उद्धव ! इस प्रकार गुरुभक्तों की श्रद्धा कितनी असीम होती है और उन्हें गुरु-भजन के प्रति कितना प्रेम रहता है यह मैंने अभिरुचि के साथ, बिल्कुल स्पष्ट करके तुम्हें बताया है ।’’

(श्री एकनाथी भागवत, अध्याय : 10 से)

Ref: ISSUE271-JULY2015