Rishi Prasad- A Spiritual Monthly Publication of Sant Sri Asharam Ji Ashram

दाम्पत्य-जीवन में सुख-शांति के सूत्र

संत कबीरजी सत्संग में आये हुए भक्तों को ब्रह्मज्ञान का सत्संग और रामनाम की महिमा तो सुनाते ही थे, साथ ही भक्तों का गृहस्थ-जीवन सुखी व स्वस्थ कैसे रहे इसके उपाय भी बताया करते थे । वे उन्हें संयम, स्नेह, उदारता, त्याग, निश्चिंतता आदि गुणों को विकसित करने की प्रेरणा देते ।

एक दिन एक गृहस्थ युवक कबीरजी का सत्संग पूरा होने के बाद भी मौनपूर्वक उनकी कुटिया के बाहर बैठा रहा । संतप्रवर ने उसे अनुशासनसहित बैठा देख कुटिया के भीतर बुलाया और पूछा : ‘‘बेटा ! क्या पूछना चाहते हो ? लगता है तुम्हारा गृहस्थ-जीवन कलह-क्लेश से भरा है, तुम परेशान दिखाई दे रहे हो ।”

युवक बड़ी विनम्रता से बोला : ‘‘हाँ ! रोज घर में पत्नी से अनबन होती रहती है । वह मेरी एक नहीं सुनती । मैं तो अनेक बार उससे संबंध-विच्छेद करने का विचार करता हूँ...”        

उस परेशान युवक को कुछ समझाने की अपेक्षा कबीरजी भीतर से सूत लाकर कातने लगे और कुछ मिनटों बाद आवाज लगायी : ‘‘देवी ! अँधेरा हो रहा है, दीपक जलाकर रख जाओ ।”

यह सुन युवक चकित हो गया कि ‘अरे ! सूर्य प्रकाशमान है, उजाला पर्याप्त है फिर दीपक की क्या जरूरत ?’ वह सोच ही रहा था कि उनकी पत्नी जलता दीपक रख गयी । पत्नी की ओर से किसी प्रकार का कोई प्रतिवाद न देखकर वह युवक आश्चर्यचकित रह गया । इतने में वे देवी दो गिलास दूध ले आयीं, एक-एक गिलास दोनों को दिया ।

कुछ मिनटों बाद पत्नी ने पुनः आकर पूछा : ‘‘जी, दूध में चीनी कम तो नहीं रह गयी ?”

‘‘नहीं-नहीं, हमारे लिए पर्याप्त है ।”

यह सुनकर वह युवक तो आश्चर्य के समुद्र में गोते खाने लगा क्योंकि दूध में चीनी की जगह नमक था लेकिन कबीरजी ने कोई फरियाद नहीं की बल्कि चुपचाप दूध को पेड़ की जड़ में डाल के आये थे ।

फिर उस युवक ने इन बातों का रहस्य जानने की अपेक्षा अपना ध्यान पुनः स्वयं की समस्या पर केन्द्रित किया और पूछा : ‘‘संतप्रवर ! सुखी गृहस्थ-जीवन के लिए कुछ बतायें । मैं आपकी शरण आया हूँ ।”

कबीरजी : ‘‘बेटा ! क्या अभी भी कुछ कहना शेष है ? सब कुछ तो कह दिया । शांतिपूर्ण दाम्पत्य-जीवन के लिए अति आवश्यक है कि पहले स्वयं दूसरों के अनुकूल बनना सीखो, तब औरों को अपने अनुकूल बनाओ । दोनों बदलो, कुछ तुम पत्नी का सहो और कुछ वह तुम्हारी बात माने । सुखी गृहस्थी की आधारशिला है - प्रेम व समर्पण । साथी के दोषों, गलतियों को क्षमा करते रहना और अपनी भूलों के लिए क्षमा माँगना । सदा मधुर भाषी होना । जहाँ प्रेम होगा, वहाँ सहनशीलता, क्षमा आदि गुण स्वतः प्रकट हो जाते हैं । ये गुण टूटते परिवाररूपी सूखे पेडों में भी हरियाली लाने में सक्षम हैं ।”  

‘‘परंतु मैं तो महाराज! पत्नी में दोष-ही-दोष देखता हूँ, उस पर संदेह भी करता हूँ ।”

‘‘भाई ! तूने प्रेम की नींव ही उखाड़ दी । प्रेम का आधार है अविचल विश्वास । कटु आलोचनाएँ, संशय, परस्पर दोष-दर्शन... ये तो दाम्पत्य-जीवन के लिए विष-समान हैं । दोष किसमें नहीं हैं ! सुखी, शांत जीवन जीना चाहते हो तो परदोष ढूँढ़ने और अपने बखान करने की आदत त्यागो । प्रेम का चश्मा पहनोगे तो तुम्हें सर्वत्र अपना प्रभु-ही-प्रभु दिखेगा ।

जाओ, अपनी उत्कृष्टता के अहंकार को त्याग के परदोष-दर्शन त्याग दो और सहनशील बनो । इसीमें तुम्हारा और तुम्हारे दाम्पत्य-जीवन का मंगल है ।”

कबीरजी के ये आशीर्वचन सुनकर उस युवक में आशा-विश्वास की एक लहर दौड़ गयी । संतश्री के वचनों का पालन कर, उनके सत्संग-प्रवचन का स्वयं तथा अपनी पत्नी को भी लाभ दिला के उसने सुखमय व भक्ति-ज्ञान संयुक्त दाम्पत्य-जीवन व्यतीत किया । सत्संग सुन के उस दम्पति की बुद्धि विलक्षण लक्षणों से सम्पन्न हुई । सुख-दुःख में वे सम रहने लगे और परमात्मा को पाने के परम पुरुषार्थ ने उन्हें संयमी-सदाचारी भी बना दिया ।