तुम ईश्वरप्राप्ति के योग्य हो । अपनेको अयोग्य अथवा हीन कभी मत समझो । मान लो, किसी सज्जन आदमी ने एक ब्राह्मणको निमंत्रण दिया । ब्राह्मण उसके घर आया । उसे बैठने को आसन दिया गया, भोजन के लिए उसके सामने थाली तथा पानी का गिलास रखा गया । अब ब्राह्मण यह सोचे कि ‘भोजन देगा कि नहीं देगा, खिलायेगा कि नहीं खिलायेगा ?’ तो यह बिल्कुल मूर्खों जैसी बात है ।
ऐसे ही भगवान ने हमें मनुष्य-शरीर दिया । श्रद्धा भी हमारे अंदर भरी, संत मिले, गीता, रामायण, उपनिषद्, योगवासिष्ठ आदि ग्रंथ मिले- इस प्रकार की सुंदर व्यवस्था की । समझो, भोजन करानेवाले का घर, थाली, गिलास, आसन सब मिल गया है और कोई व्यंजन भी धर दिया है । अब हम सोचें कि ‘खिलायेगा कि नहीं खिलायेगा ?’ तो ऐसा सोचना हमारी गलती है । ऐसे ही ‘हमको भगवान मिलेंगे कि नहीं मिलेंगे ?’ यह सोचना भी गलती है । अपने को ईश्वरप्राप्ति के अयोग्य मानना ही सबसे बड़ी अयोग्यता है । ‘मैंने ये-ये गलतियाँ कीं, मैं ईश्वरप्राप्ति के लायक नहीं हूँ’- ऐसा सोचना बहुत हानिकारक है ।
इसके लिए क्या करें ?
पहली बात-ईश्वरप्राप्ति का इरादा पक्का कर लो । दूसरी बात- भगवान का होकर भजन करो । भजन करते हो वह नहीं फलता है क्योंकि तुम सेठ होकर, निर्बल होकर, बलवान होकर, माई अथवा भाई होकर भजन करते हो । न निर्बल होकर भजन करो और न ही बलवान होकर। वास्तव में तुम सत्-चित्-आनंद के थे, हो और रहोगे, इसलिए तुम सच्चिदानंद परमात्मा के होकर भजन करो ।
जिसने ईश्वरप्राप्ति का इरादा पक्का कर लिया, वह बार-बार दोहराये कि ‘मुझे तो सुख-दुःख में सम रहना है ।’ भगवान ‘गीता’ में कहते हैं - सुखदुःखेसमेकृत्वा... (गीता : 2.38) सम क्यों कहा ? क्योंकि इससे आध्यात्मिक लाभ होगा । तुम क्या करते हो ? भगवान की प्राप्ति हुई-न हुई, चलेगा, संसार की प्राप्ति में अपने को झोंक देते हो । ब्राह्मण भोजन न करे, भाग जाय तो घरवाला क्या करेगा ? ऐसे ही भगवान ने ईश्वरप्राप्ति के निमित्त शरीर दिया है और मनुष्य विकारों में मजा लेने भागे, हेराफेरी, निंदा, कपट में भागे तो भगवान क्या करेंगे ?
वास्तव में भगवान मिले हुए हैं । केवल मिल-मिल के बिछड़नेवाले संसार की सत्यता दिखती है और जो कभी बिछड़ता नहीं है उस परमेश्वर की प्रीति और सत्यता नहीं दिखती है, हमारी इतनी ही गलती है बस !
- पूज्य संत श्री आशारामजी बापू