बल्ख के बादशाह हजरत इब्राहिम उदार प्रकृति के व्यक्ति थे । उन्होंने एक गुलाम खरीदा । उससे पूछा - ‘‘तेरा नाम क्या है ?’’
गुलाम ने उत्तर दिया - ‘‘जिस नाम से आप पुकारें ।’’
‘‘तू क्या खायेगा ?’’
‘‘जो आप खिलायेंगे ।’’
‘‘तुझे कैसे कपड़े पसन्द हैं ?’’
‘‘जो आप पहनने को दें ।’’
‘‘तू काम क्या करेगा ?’’
‘‘जो आप करायें ।’’
आखिर बादशाह ने हैरानी से पूछा - ‘‘आखिर तू चाहता क्या है ?’’
गुलाम ने शांतिपूर्वक जवाब दिया - ‘‘हुजूर ! गुलाम की अपनी क्या चाह ?’’
बादशाह गद्दी से उतरकर उसके गले लगते हुए बोले - ‘‘तुम मेरे उस्ताद हो, तुमने मुझे सिखाया कि खुदाताला के बंदे को कैसा होना चाहिए ।’’
जो भक्त प्रभुसेवा, सद्गुरुसेवा करते हैं उन्हें अपनी व्यक्तिगत इच्छा-आकांक्षाएँ नहीं रखनी चाहिए । उनकी एकमात्र इच्छा अपने आराध्य के प्रति अनुकूल बनने की हो । उन्हें अपनी इच्छा को आराध्य की इच्छा में मिला देना चाहिए । ऐसे सेवकों पर अनायास ही भगवान का, गुरु का हृदय बरस पड़ता है ।