Rishi Prasad- A Spiritual Monthly Publication of Sant Sri Asharam Ji Ashram

गुरुदेव की अंतर्वाणी

हे साधक ! अपने उस आत्मस्वरूप को, मधुरस्वरूप को, मुक्तस्वरूप को हम पाकर रहेंगे’- ऐसा दृढ़ निश्चय कर । विघ्न-बाधाओं के सिर पर पैर रखता जा । यह मन की माया कई जन्मों से भटका रही है । अब इस मन की माया से पार होने का संकल्प कर । कभी काम, क्रोध, लोभ में तो कभी मद, मात्सर्य में यह मन की माया जीव को भटकाती है । लेकिन जो भगवान की शरण हैं, गुरु की शरण हैं, जो सच्चिदानंद की प्रीति पा लेते हैं वे इस माया को तर जाते हैं । भगवान श्रीकृष्ण ने कहा :

मामेव ये प्रपद्यन्ते

मायामेतां तरन्ति ते ।

(गीता : 7.14)

माया उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकती । भगवान के जो प्यारे हैं, गुरु के जो दुलारे हैं, माया उनके अनुकूल हो जाती है ।

जैसे शत्रु के कार्य पर निगरानी रखते हैं, वैसे ही तू मन के संकल्पों पर निगरानी रख कि कहीं यह तुझको माया में तो नहीं फँसाता । संसार के भोगों में उलझना है तो बहुतों की खुशामद करनी पड़ेगी, बहुतों से करुणा-कृपा की याचना करनी पड़ेगी, उस पर भी कंगालियत बनी रहेगी और सच्चा सुख पाना है तो बस, भगवत्स्वरूप गुरु की रहमत काफी है ।

बेटा ! शरीर से भले तू दूर है लेकिन मेरी दृष्टि से तू दूर नहीं है, मेरे आत्मस्वभाव से तू दूर नहीं है । मैं तुझे अंतर में प्रेरित करता हूँ । तू अच्छा करता है तो मैं धन्यवाद देता हूँ, बल बढ़ाता हूँ । कहीं गड़बड़ करता है तो मैं तुझे रोकता-टोकता हूँ । तू देखना मेरे चित्र की ओर । जब तू अच्छा करेगा तो मैं मुस्कराता हुआ मिलूँगा और जब तू गड़बड़ करके आयेगा तो उसी चित्र में मेरी आँखें तेरे को नाराजगी से देखती हुई मिलेंगी । तू समझ लेना कि हमने अच्छा किया है तो गुरुजी प्रसन्न हैं और गड़बड़ की तो गुरुजी का वही चित्र तुझे कुछ और खबरें देगा । गुरुमंत्र के द्वारा गुरु तेरा अंतरात्मा होकर मार्गदर्शन करेंगे । तू घबराना मत !

सदाचारी के बल को अंतर्यामी पोषता है और वही देव दुष्ट आचरण करनेवाले की शक्ति हर लेता है, उसकी मति हर लेता है । रब रीझे तो मति विकसित होती है और जिसकी मति विकसित होती है वह जानता है कि आखिर कब तक ? ये संबंध कब तक ? ये सुख-दुःख कब तक ? ये भोग और विकारों का आकर्षण कब तक ? आपका विवेक जगता है तो समझ लो रब राजी है और विवेक सोता है, विकार जागते हैं तो समझ लो रब से आपने पीठ कर रखी है, मुँह मोड़ रखा है । रब रुसे त मत खसे । ना-ना... दुनिया के लिए रब से मुँह मत मोड़ना । रब के लिए भले विकारों से, दुनिया से मुँह मोड़ दो तो कोई घाटा नहीं पड़ेगा क्योंकि ईश्वर के लिए जब चलोगे तो माया तुम्हारे अनुकूल हो जायेगी ।

जो ईश्वर के लिए संसार की वासनाओं का त्याग करते हैं, उन्हें ईश्वर भी मिलता है और संसार भी उनके पीछे-पीछे चलता है लेकिन जो संसार के लिए ईश्वर को छोड़कर संसार के पीछे पड़ते हैं, संसार उनके हाथों में रहता नहीं, परेशान होकर सिर पटक-पटक के मर जाते हैं और जो चीज कुछ पायी हुई देखते हैं, वह भी छोड़कर बेचारे अनाथ हो जाते हैं । इसीलिए हे वत्स ! तू अपने परमात्म-पद को सँभालना । उस प्रेमास्पद की प्रेममयी यात्रा करना । - पूज्य संत श्री आशारामजी बापू

 

*RP-270-June-2015