एक बार जोगी गोरखनाथ विचरण करते हुए घामा नगरी जा रहे थे । वहाँ उनका ध्यान एक किसान की ओर गया । गर्मी का मौसम था, भयंकर लू चल रही थी किंतु माणिक नामक वह किसान खेत में अथक रूप से परिश्रम में मग्न था । उसकी तत्परता एवं साहस को देखकर गोरखनाथजी उसके पास गये और बोले : ‘‘कृषक ! यात्रा करने से मुझे भूख-प्यास का अनुभव हो रहा है । मेरे लिए कुछ जलपान की व्यवस्था कर सकते हो ?’’
माणिक : ‘‘बाबा ! मेरे पास कुछ सूखी रोटियाँ हैं, पात्र में जल भी है । यदि आप आज्ञा दें तो सेवा करूँ ।’’
गोरखनाथजी की स्वीकृति पाकर किसान प्रसन्न हो उठा । उसने अपने खाने की चिंता न करके बड़े भाव एवं प्रेमपूर्वक गोरखनाथजी को भोजन कराया ।
गोरखनाथजी ने कहा : ‘‘माणिक ! मैं तुम्हारी कर्मठता और श्रद्धा-भक्ति से प्रसन्न हूँ । तुम्हें जिस वस्तु की चाह हो, माँग लो ।’’
माणिक : ‘‘नाथजी ! मुझे आपकी कृपा के सिवा और क्या चाहिए !’’
जोगी गोरखनाथजी माणिक की ऊँची समझ, श्रद्धा, मन की निर्मलता देखकर खूब प्रसन्न हुए और दोनों हाथ ऊपर करके आशीर्वाद देते हुए कहा : ‘‘तथास्तु ।’’
कैसे होते हैं आत्मपद में जगे हुए महापुरुष, कि जो बस मौके की ताक में होते हैं कि किस प्रकार और कब वे अपनी अहैतुकी कृपा हम पर बरसा सकें । आत्म-अमृत का सागर उनके हृदय में हिलोरें ले रहा होता है । वे तो छलकने का अवसर ढूँढ़ते रहते हैं, पात्र की खोज में भ्रमण करते रहते हैं ।
आत्म-संतृप्त उन महापुरुष की आँखों से करुणा-कृपा बरस रही थी । अपने जीवन-रथ की बागड़ोर पूरी तरह सौंप देनेवाला ऐसा विरला महापात्र पाकर वे बोले : ‘‘माणिक ! तू हृदय में बसनेवाले आत्मरत्न को खोज ले ।’’
गुरु गोरखनाथजी के मुख से निकले वचन किसान के निर्मल मन में गहरे उतर गये । उस दिन के बाद किसान अंतर्मुख होकर आत्मचिंतन में घंटों डूबा रहने लगा । उसका मन संसार से उपराम हो गया । आखिर वह घर छोड़कर आत्मरत्न की खोज में गहन वन में जा के साधना करने लगा । वह बहुत कम समय में इस स्थिति में पहुँच गया कि ध्यान में शरीर की भी सुध भूल जाता । परंतु यह भी एक स्थिति है, साधना का अंतिम लक्ष्य नहीं ।
गोरखनाथजी भक्त के मार्गदर्शन हेतु वहाँ पहुँच गये । उन्होंने माणिक को दीक्षा दी तथा उसका नाम ‘माणिकनाथ’ रख दिया । गुरुआज्ञा-पालन में तत्पर माणिकनाथ ने बहुत ही कम समय में गुरु के कृपाप्रसाद से जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य आत्मा-परमात्मा का साक्षात्कार कर लिया । धन्य हैं ऐसे सत्पात्र शिष्य और महाकरुणावान सद्गुरु ! ये ही सद्गुरु गोरखनाथजी अपने जीवन का निचोड़ बताते हुए हमें सजग करते हैं :
गोरख ! जागता नर सेविये ।
‘हे मानव ! जीवन सफल बनाने के लिए जीवित महापुरुष के सत्संग, दर्शन, सेवा, मार्गदर्शन का लाभ ले ले ।’
गुरु-वचन जिनके लिए प्राणों से भी प्यारे हों और उनका अनुसरण ही जिनके जीवन का एकमात्र लक्ष्य हो, ऐसे माणिक बहुत विरले होते हैं । वे ही इस दुनिया के सच्चे वीर हैं, पुरुषार्थी हैं । वे धरती के देव और सबके आदर्श हैं ।