- स्वामी अखंडानंदजी सरस्वती
जिसमें वैराग्य नहीं है वह अपने शरीर को सुरक्षित रखकर ईश्वर को देखना चाहता है । एक बाबूजी कहते थे : ‘‘मैं ईश्वर को तब मानूँगा जब वह मेरे सामने सम्पूर्ण सृष्टि का प्रलय करके फिर से सृष्टि बनाये ।’’
एक साधु ने पूछा : ‘‘ईश्वर प्रलय करेगा, इसे आप कैसे देखना चाहते हो ? आप अपना शरीर बचाकर देखना चाहते हो या अपने शरीर का भी प्रलय देखना चाहते हो ?’’
बाबूजी बोले : ‘‘मेरा शरीर तो बचा ही रहेगा । नहीं तो मैं देखूँगा कैसे ?’’
ऐसा नहीं हुआ करता । शरीर में अहंभाव ही राग है और वही तो बंधन है । देहाध्यास भी बना रहे और ईश्वर भी मिल जाय, यह सम्भव नहीं है । यह जो हड्डी, मांस, रक्त, पित्त, कफ, मल, मूत्र की देह है, इसे लेकर भगवान से नहीं मिला जा सकता । यह भगवान से मिलने योग्य नहीं है ।
हम कई मित्र एक महात्मा के पास गये । उन्होंने उस दिन मौज में आकर कहा : ‘‘वरदान माँगो !’’
किसीने भक्ति माँगी, किसीने वैराग्य । सांसारिक विषय किसीने नहीं माँगा । हममें से एक ने कहा : ‘‘मुझे अभी और बिना किसी शर्त के ईश्वर का दर्शन कराइये ।’’
उन महात्मा ने स्वीकार कर लिया । सबको भगवन्नाम-संकीर्तन करने को कहा । वे स्वयं भगवान से प्रार्थना करने लगे । खूब रोये । वातावरण बड़ा गम्भीर और पवित्र बन गया । हम सब उत्सुक हो गये । थोड़ी देर में वे महात्मा बोले : ‘‘भगवान आ गये हैं और दर्शन भी देना चाहते हैं किंतु वे कहते हैं कि ‘‘इसने मेरे दर्शन के लिए कोई साधन-भजन तो किया नहीं है । मैं इसे दर्शन दूँगा तो इसके सब पुण्य समाप्त हो जायेंगे । मेरा दर्शन ही सब पुण्यों का फलभोग बनकर मिल जायेगा । फिर शेष जीवन में इसे बचे हुए पापों का ही फल भोगना पड़ेगा । इसके सारे शरीर में कुष्ठ हो जायेगा । इसकी सब निंदा करेंगे, इस पर थूकेंगे । रोग, शोक, कष्ट, अपमान ही इसे पूरे जीवन भोगना पड़ेगा । इससे पूछ लो, यदि यह स्वीकार करे तो मैं इसके लिए प्रकट होता हूँ ।’’
यह बात सुनते ही उन सज्जन का मुख पीला पड़ गया । नेत्र फटे-से हो गये । हाथ-पैर ढीले पड़ गये । वे बोले : ‘‘मुझे सोच लेने दीजिये !’’
महात्मा ने पूछा : ‘‘तुम चाहते क्या थे ?’’
वे बोले : ‘‘मैं तो समझता था कि भगवान का दर्शन हो जाने पर मैं भी आपके समान महात्मा हो जाऊँगा । मेरा भी सब लोग सम्मान करेंगे । मेरी पूजा होगी । मुझे बिना माँगे सब सुविधाएँ मिलती रहेंगी ।’’
इस प्रकार शरीर के सुख-सम्मान के लिए ही लोग ईश्वर को भी चाहते हैं । ऐसे परमात्मा नहीं मिला करता । ईश्वर को प्राप्त करके भी जो देह का महत्त्व चाहता है उसे ईश्वर कैसे मिल सकता है ? देह को ‘मैं’ समझना ही तो ईश्वर की प्राप्ति में बाधक है ।
ईश्वर को प्राप्त करना है तो देह से ऊपर उठना होगा । तुम प्रेम, भक्ति, ज्ञान कुछ भी चाहो, देह से ऊपर उठे बिना इनमें से किसीकी प्राप्ति सम्भव नहीं है ।