Rishi Prasad- A Spiritual Monthly Publication of Sant Sri Asharam Ji Ashram

ज्ञान की होली खेल के जन्म-मरण से छूट जाओ

(होलिका दहन : 28 मार्च, धुलेंडी : 29 मार्च)

संतप्त हृदयों को शीतलता और शांति की सुरभि देने की शक्ति, कार्य करते हुए संतुलित चित्त और सब परिस्थितियों में समता के साम्राज्य पर बैठने की योग्यता... कहाँ तो मनुष्य को इतनी सारी योग्यताएँ मिली हुई हैं और कहाँ छोटे-मोटे गलत काम करके मनुष्य दर-दर की ठोकरें खा रहा है । जन्म-मरण की दुःखद पीड़ाओं में, राग-द्वेष एवं विकारों में गिरकर चौरासी लाख योनियों की पीड़ा की तरफ घसीटा जा रहा है । उत्सव के द्वारा, साधना के द्वारा नेत्रों में जगमगाता आनंद उत्पन्न करिये, संतप्त हृदयों को शीतलता देने का सामर्थ्य जगाइये । व्यवहार में संतुलन बना रहे ऐसी समता से अंतःकरण सुसज्ज बनाइये और कितनी भी उपलब्धियाँ हो जायें फिर भी स्मरण रखिये कि यह स्वप्नमात्र है ।सुख-दुःख में सम रहने की सुंदर समता का विकास कीजिये तो आपका उत्सव बढ़िया हो गया । आपसे जो मिलेगा उसे भी हितकारी संस्कार और हित मिलेगा ।

इस उत्सव का उद्देश्य

होली का उत्सव मनुष्यों के संकल्पों में कितनी शक्ति है इस बात की स्मृति देता है और उसके साथ-साथ सज्जनता की रक्षा करने के लिए लोगों को शुभ संकल्प करना चाहिए यह संकेत भी देता है । भले दुष्ट व्यक्ति के पास राज्य-सत्ता अथवा वरदान का बल है, जैसे होलिका के पास था, फिर भी दुष्ट को अपनी दुष्ट प्रवृत्ति का परिणाम देर-सवेर भुगतना पड़ता है । इसलिए होलिकोत्सव से सीख लेनी चाहिए कि अपनी दुष्प्रवृत्तियाँ, दुष्ट चरित्र अथवा दुर्भावों का दहन कर दें और प्रह्लाद जैसे पवित्र भावों का भगवान भी पोषण करते हैं और भगवान के प्यारे संत भी पोषण करते हैं तो हम भी अपने पवित्र भावों का पोषण करें, प्रह्लाद जैसे भावों का पोषण करें । वास्तव में इसी उद्देश्यपूर्ति के लिए यह उत्सव है । लेकिन इस उत्सव के साथ हलकी मति के लोग जुड़ गये । इस उत्सव में गंदगी फेंकना, गंदी हरकतें करना, गालियाँ देना, शराब पीना और वीभत्स कर्म करना - यह उत्सव की गरिमा को ठेस पहुँचाना है ।

कहाँ भगवान श्रीकृष्ण, शिव और प्रह्लाद के साथ जुड़ा उत्सव और अभी गाली-गलौज, शराब-बोतल और वीभत्सता के साथ जोड़ दिया नशेड़ियों ने । इससे समाज की बड़ी हानि होती है । यह बड़ों की बेइज्जती करने का उत्सव नहीं है,  हानिकारक रासायनिक रंगों से एक-दूसरे का मुँह काला करने का उत्सव नहीं है । यह उत्सव तो एक-दूसरे के प्रति जो कुसंस्कार थे उनको ज्ञानाग्निरूपी होली में जलाकर एक-दूसरे की गहराई में जो परमात्मा है उसकी याद करके अपने जीवन में नया उत्सव, नयी उमंग, नया आनंद लाने और आत्मसाक्षात्कार की तरफ, ईश्वर-अनुभूति की तरफ बढ़ने का उत्सव है । यह उत्सव शरीर तंदुरुस्त, मन प्रसन्न और बुद्धि में बुद्धिदाता का ज्ञान प्रविष्ट हो - ऐसा करने के लिए है और इस उत्सव को इसी उद्देश्य से मनाना चाहिए ।

आप भी ज्ञानमय होली खेलो

इस होली के रंग में यदि ज्ञान का, ध्यान का रंग लग जाय, ईश्वरीय प्रेम का रंग लग जाय तो फिर जगत की खिन्नता के रंग से व्यक्ति बच जाता है । जब तक ज्ञान का रंग पक्का नहीं लगा तब तक खूब सँभल-सँभलकर होली खेलें । निर्दोष भाव को व्यक्त करने के लिए होली पर सहज जीवन, सरल जीवन, स्वाभाविक जीवन होता है, स्वाभाविक खेल होता है लेकिन इस स्वाभाविक खेल में भी काम उत्तेजित हो जाय, द्वेष उत्तेजित हो जाय, राग उत्तेजित हो जाय तो होली का परिणाम बुरा आ जाता है । ऐसा बुरा परिणाम न आये इसकी सँभाल रखते हुए जो ज्ञान की होली खेलने लग जाते हैं वे जन्म-मरण के चक्कर से छूट जाते हैं ।

जन्माष्टमी, दिवाली, शिवरात्रि, होली - ये चार दिन संयम, साधना में बहुत हितकारी हैं । अगर इन दिनों में नासमझी से पति-पत्नी का संसारी व्यवहार किया तो विकलांग संतान ही होती है । अगर संतान नहीं भी हुई तो भी पति-पत्नी को बड़ी हानि होती है । रोगप्रतिकारक शक्ति का खूब नाश होता है । जीवनभर किसी-न-किसी बीमारी से जूझते रहेंगे, परेशान होते रहेंगे । अतः जन्माष्टमी, दिवाली, शिवरात्रि, होली को असावधानी बहुत नुकसान करेगी और संयम-साधना बहुत लाभ करेगी । इन चार दिनों में विशेष संयम-साधना करें, औरों को भी समझायें ।