नेपोलियन अपनी सेना लेकर युद्ध करने जा रहा था । रास्ते में दूर तक फैला हुआ आल्प्स नाम का महापर्वत पड़ा । उसकी ऊँची-ऊँची चोटियों को पार करना सहज नहीं था । फिर भी वह घबराया नहीं, उसने पर्वत चढ़कर पार करने का निश्चय किया ।
पर्वत के नीचे झोंपड़ी में एक बुढ़िया रहती थी । नेपोलियन को पर्वत की ओर बढ़ते देख वह बोली : ‘‘युवक ! तुम क्या करने जा रहे हो ! इस दुर्गम पर्वत पर चढ़ने का जिसने भी दुस्साहस किया है, उसे प्राण गँवाने पड़े हैं । तुम यह गलती न करो, लौट जाओ ।’’
नेपोलियन ने इस चेतावनी के प्रत्युत्तर में एक हीरों का हार उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा : ‘‘माँ ! तुम्हारी बातों से मेरा उत्साह दुगना हो गया है । ऐसे ही कार्यों को करने में मेरी बड़ी रुचि है, जिन्हें दूसरे लोग नहीं कर सकते ।’’
बुढ़िया फिर बोली : ‘‘इस पहाड़ पर चढ़ने का प्रयास करोगे तो गिरकर चकनाचूर हो जाओगे, तुम्हारी और तुम्हारे साथियों की हड्डियाँ भी ढूँढ़े न मिलेंगी । अतः लौट जाओ ।’’
लेकिन नेपोलियन मार्ग में आनेवाले विघ्नों से डरकर कदम पीछे हटानेवालों में से नहीं था, वह तो लक्ष्य को हासिल करने के लिए अपनी जी-जान लगा देनेवालों में से था ।
पूज्य बापूजी के सत्संगामृत में आता है कि ‘‘विघ्न-बाधाओं से घबराकर पलायनवादी होना, भागते फिरना... धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का - ऐसा जीवन बिताना, तुच्छ तिनके की तरह भटकते फिरना यह उज्ज्वल भविष्य की निशानी नहीं है एवं विकारों में डूबा हुआ जीवन भी उज्ज्वल भविष्य की निशानी नहीं है । विघ्न-बाधाओं से लड़ते-लड़ते अशांत होना भी ठीक नहीं बल्कि विघ्न-बाधाओं के बीच से रास्ता निकाल के अपने लक्ष्य तक की यात्रा कर मंजिल को पाना यह जरूरी है ।
तेरे मार्ग में वीर काँटे बड़े हों,
लिये तीर हाथों में विघ्न खड़े हों ।
बहादुर सबको मिटाता चला जा,
कदम अपने आगे बढ़ाता चला जा ।।’’
भले ही नेपोलियन को पूज्य बापूजी के इन अमृतवचनों को सुनने का सौभाग्य नहीं मिला था पर उसके जीवन में ये वचन प्रत्यक्ष दिखाई दे रहे थे ।
बुढ़िया की बात सुनकर नेपोलियन ने गर्व से उत्तर दिया : ‘‘माँ ! एक बार आगे पैर बढ़ा के पीछे हटाना यह वीरों का कार्य नहीं है । अब मार्ग में जो भी विघ्न-बाधाएँ मिलेंगी, उन्हें पार कर मैं आगे ही बढ़ूँगा ।’’
बुढ़िया ने आशीर्वाद देते हुए कहा : ‘‘बेटा ! ईश्वर तुम्हारे जैसे उत्साही व पुरुषार्थी लोगों का मनोरथ अवश्य सफल करता है । मेरी निराशाजनक बातों से भी तुम्हारा उत्साह भंग नहीं हुआ । यह सफलता का शुभ लक्षण है । तुम अवश्य विजयी होओगे ।’’
नेपोलियन उसी क्षण आगे बढ़ा और अनेक संकटों को झेलते हुए कुछ ही दिनों में उसने दल-बल के साथ आल्प्स पर्वत को पार करके अपनी विजय-पताका लहरा दी ।
लेकिन किसी पर्वत पर चढ़ जाना, शत्रु को युद्ध में हरा देना यह शाश्वत विजय नहीं है, शाश्वत लक्ष्य नहीं है, कोई बड़ी बहादुरी नहीं है । श्रीमद्भागवत में आता है : स्वभावविजयः शौर्यम् । शरीर में होते हुए भी अपने आत्मा-परमात्मा का साक्षात्कार करना यह बड़े-में-बड़ी बहादुरी है, सबसे बड़ा शौर्य है । और यही जीवन का शाश्वत लक्ष्य है ।