Rishi Prasad- A Spiritual Monthly Publication of Sant Sri Asharam Ji Ashram

अलौकिक भगवद्‌रस का पान करानेवाली महापुण्यमयी रात्रि

(शरद पूर्णिमा)

            एकोऽहं बहु स्याम् । जैसे एक स्वप्नद्रष्टा अनेक हो जाता है, ऐसे ही एक परमेश्वर-सत्ता अनेकरूप हो जाती है । पृथ्वी में उसी परमेश्वर की सत्ता पेड़-पौधों को, बीजों को पोषण देती है । पृथ्वी का कण-कण मधुमय परमात्मा से संचारित, जल की बूँद-बूँद स्वादमय सत्ता से सम्पन्न, वायु का हर झोंका सच्चिदानंद की सत्ता से सराबोर...

            भगवान श्रीकृष्ण गीता (7.8) में कहते हैं :

प्रभास्मि शशिसूर्ययोः ।

‘चन्द्रमा और सूर्य में प्रकाश मैं हूँ ।’

पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः ।

‘रसस्वरूप, अमृतमय चन्द्रमा होकर सम्पूर्ण औषधियों, वनस्पतियों को मैं पुष्ट करता हूँ ।’     (गीता : 15.13)

            चन्द्रलोक से वह रस चन्द्रमंडल में आता है, चन्द्रमंडल का रस धरती के पेड़-पौधों, अन्न-औषधियों, गर्भस्थ शरीरों को पुष्ट करता है । अन्न-औषधियों से हमारा तन पुष्ट व मन स्फुरित होता है । मधुमय की कैसी मधुमय लीला है ! वे ही मधुमय परमेश्वर साकार होकर भक्तों के छुपे हुए आनंदस्वभाव को जगाने के लिए प्रेमावतार, कृष्णावतार ले के आते हैं ।

            जो पृथ्वी (धरा) का सुख है देखने, चखने, सूँघने, स्पर्श करने, सुनने का, वह विकारी सुख है । निर्विकारी सुख (अधरामृत) देने की ठान ली श्रीकृष्ण ने कि ‘शरद पूनम की रात को मैं बंसी बजाऊँगा और जो अधिकारी होंगे उनको वह ‘क्लीं’ बीजमंत्र की ध्वनि, वह आनंददायिनी ध्वनि सुनायी पड़ेगी ।’

            वे पुण्यशीला, महात्मास्वरूपिणी गोपियाँ दौड़ती-भागती जंगल में पहुँचीं । शुद्ध हवामान है और शरद पूनम की रात है । श्रीकृष्ण ने सब कुछ जानते हुए भी लोक-उपदेश के निमित्त उन गोपियों को थोड़ा झकझोरा : ‘‘इस बेला में जंगल में कैसे आयी हो ? शरद पूनम की रात के कारण रंग-बिरंगे पुष्पों से लदे इस वन की लताओं की, पेड़-पौधों की चमक देखने को आयी हो ? देख लिया, अब अपने-अपने घर जाओ । अपने बच्चों को देखो, पति, ससुर-सासु आदि की सेवा करो !’’

            गोपियाँ कोई साधारण आत्मा नहीं हैं । इन गोपियों से प्रेमाभक्ति का प्रसाद नारदजी, उद्धवजी और अर्जुन ने पाया ।

            गोपियाँ कहती हैं : ‘‘हे आचार्यदेव ! हम तो अधरामृत का पान करने आयी हैं । ये रीति-रिवाज, कर्तव्य की अपनी सीमा है और इन सारे कर्तव्यों का फल है कि परमात्मा के सत्-चित्-आनंदस्वभाव का प्रसाद पाकर मुक्तात्मा, निहालात्मा, तृप्तात्मा होना । तुम क्या हो, केशव ! हम तुम्हें जानती हैं और आप हमें अपने घर भेजना चाहते हो तो हम आपसे कहती हैं कि हम सचमुच में अपने घर आयी हैं । जीव का वास्तविक घर परमात्मा है । घर-परिवार, धर्म-अनुष्ठान वैराग्य लाने के लिए हैं और वैराग्य का फल है भक्तियोग, ज्ञानयोग, ध्यानयोग । अब हमें तुम सीख देते हो कि जाओ । माधव ! जिसने आपके शब्दब्रह्म का, अधरामृत का, भगवद्रस का पान कर लिया है, उसका मन फिर दूसरी आसक्तियों में नहीं फँसता है ।’’

            गोपियों की करुण पुकार सुनकर सम्पूर्ण योगों के स्वामी पीताम्बरधारी भगवान श्रीकृष्ण गले में वनमाला पहने व मुखकमल पर मंद-मंद मुस्कान लिये दो-दो गोपियों के बीच सहसा प्रकट हो गये । हरेक गोपी के संग एक श्रीकृष्ण, ऐसे सहस्रों गोपियों के साथ दिव्य रासोत्सव प्रारम्भ हुआ । स्वर्ग की दिव्य दुंदुभियाँ अपने-आप बज उठीं । स्वर्गीय पुष्पों की वर्षा होने लगी ।

            भगवान जीवों पर कृपा करने के लिए ही मनुष्यरूप में प्रकट होते हैं और ऐसी लीलाएँ करते हैं, जिन्हें देख-सुनकर जीव विकारी रस से उपराम हो के भगवद्रस-परायण हो जाय ।

            राजा परीक्षित ने शुकदेवजी से पूछा : ‘‘गोपियाँ श्रीकृष्ण को अपना परम प्रियतम मानती थीं । वे उन्हें कोई परात्पर परब्रह्म तो मानती नहीं थीं, अंतर्यामी आत्मा तो मानती नहीं थीं । ऐसे में उनके लिए गुणों के प्रवाहरूप इस संसार की निवृत्ति कैसे सम्भव हुई और उन्होंने आंतरिक रस - अधरामृत कैसे पा लिया ?’’

            श्री शुकदेवजी कहते हैं : ‘‘चेदिराज शिशुपाल भगवान से द्वेषभाव से जुड़ा था, गोपियाँ जारभाव से जुड़ी थीं, कंस शत्रुभाव से, भय से जुड़ा था । कोई प्रेमभाव से जुड़ा है, कोई किसी भाव से जुड़ा है किंतु सब जुड़े तो परात्पर ब्रह्म से, सच्चिदानंदस्वरूप परमात्मा से ही हैं । वृत्तियाँ भगवान से जुड़ती हैं इसलिए भगवन्मय हो जाती हैं ।’’

            आप क्या हैं और भगवान से किस भाव से जुड़े हैं - इसका महत्त्व नहीं है । महत्त्व इसका है कि आप किससे जुड़े हैं । आप किसी भी भाव से भगवान से जुड़ो तो आपको भगवद्रस ही मिलेगा । इस भगवद्रस के बिना सच्ची शांति, सच्चा सुख नहीं मिलता । इसे पाने के लिए जप, ध्यान, सुमिरन तो सहायक हैं परंतु शरद पूनम की रात्रि उनमें चार चाँद लगा देती है । ऐसी मंगल रात्रि में आप भी थोड़ा जप-ध्यान करके भगवद्-शरण स्वीकारें और परमेश्वर में गोता मारकर भगवद्-सुख, भगवद्-रस उभारें ।