Rishi Prasad- A Spiritual Monthly Publication of Sant Sri Asharam Ji Ashram

सच्ची प्रार्थना है असली अक्षयपात्र

महाभारत में आता है कि जब पांडव वनवास के लिए जा रहे थे, तब युधिष्ठिर अपने पुरोहित धौम्य मुनि के पास आकर बोले : ‘‘विप्रवर ! वेदों में पारंगत ब्राह्मण मेरे साथ वन में चल रहे हैं परंतु मैं इनका पालन-पोषण करने में असमर्थ हूँ । अब मुझे क्या करना चाहिए ?’’

मुनि ने कहा : ‘‘तुम तपस्या का आश्रय लेकर ब्राह्मणों का भरण-पोषण करो ।’’

युधिष्ठिर ने मुनि के बताये अनुसार अष्टोत्तरशतनामात्मक स्तोत्र द्वारा भगवान सूर्य का अनुष्ठान किया । प्रसन्न होकर सूर्यनारायण ने दर्शन दिये और बोले : ‘‘धर्मराज ! तुम जो कुछ चाहते हो वह सब तुम्हें प्राप्त होगा । मैं बारह वर्षों तक तुम्हें अन्न प्रदान करूँगा । यह ताँबे की बटलोई (भोजन पकाने का एक गोल तले का बर्तन) लो । इस पात्र द्वारा निकला भोजन तब तक अक्षय बना रहेगा, जब तक द्रौपदी स्वयं भोजन न करके परोसती रहेगी ।’’

धर्मराज उसीसे ब्राह्मणों को भोजन कराने लगे । सभीको भोजन कराने के बाद द्रौपदी भोजन करती थी । जब दुर्योधन ने सुना कि पांडव तो वन में भी भली प्रकार दान-पुण्य करते हुए आनंद से रह रहे हैं, तब उसने उनका अनिष्ट करने का विचार किया ।

छल-कपट की विद्या में निपुण कर्ण और दुःशासन आदि के साथ वह भाँति-भाँति के उपायों से पांडवों को संकट में डालने की युक्तियाँ खोजने लगा । उसी समय परम क्रोधी दुर्वासा मुनि अपने शिष्यों को साथ लिये हुए आ पहुँचे । दुर्योधन ने स्वयं दास की तरह रात-दिन श्रद्धा से नहीं अपितु उनके शाप के डर से उनकी सेवा की ।

एक दिन मुनि प्रसन्न होकर बोले : ‘‘दुर्योधन ! तुम्हारे मन में जो इच्छा हो, वर माँग लो ।’’

जो ईर्ष्या और द्वेष के शिकंजे में आ जाता है, उसका विवेक उसे साथ नहीं देता है । दुष्ट दुर्योधन ने कहा : ‘‘ब्रह्मन् ! जिस प्रकार आप मेरे अतिथि हुए उसी प्रकार पांडवों के भी अतिथि होइये । मेरी प्रार्थना से आप वहाँ ऐसे समय में जाइये जब द्रौपदी स्वयं भोजन कर चुकी हो ।’’

‘‘मैं वैसा ही करूँगा ।’’ मुनि चले गये ।

कर्ण बोला : ‘‘सौभाग्य से हमारा काम बन गया । हमारे शत्रु विपत्ति के महासागर में डूब गये हैं ।’’

भूखे भोजन करके खुश होते हैं, मोर बादल गरजने से खुश होते हैं, सज्जन दूसरों की उन्नति देख के खुश होते हैं और दुष्ट व्यक्ति दूसरों को संकट में देखकर खुश होते हैं ।

एक दिन पांडव व द्रौपदी भोजन से निवृत्त हो सुखपूर्वक बैठे थे, तभी अपने दस हजार शिष्यों से घिरे हुए दुर्वासा मुनि उस वन में आये ।

युधिष्ठिर ने हाथ जोड़कर प्रणाम किया, फिर विधिपूर्वक पूजा करके बोले : ‘‘भगवन् ! अपना नित्य नियम पूरा करके (भोजन के लिए) शीघ्र पधारिये ।’’ मुनि शिष्यों के साथ स्नान करने के लिए चले गये ।

इधर द्रौपदी को भोजन के लिए बड़ी चिंता हुई, उसे कोई उपाय नहीं सूझ रहा था । फिर द्रौपदी को याद आया कि जब सारे रास्ते बंद हो जाते हैं और आशा की कोई किरण नहीं होती तो एकमात्र भगवान की प्रार्थना और उनका आश्रय ही हमें बचा सकता है । वह श्रीकृष्ण को सच्चे मन से पुकारने लगी । शुद्ध हृदय से की गयी सच्ची, भावपूर्ण प्रार्थना ईश्वर जरूर सुनते हैं । द्रौपदी की पुकार सुन भगवान तुरंत ही वहाँ आ गये । द्रौपदी ने सब समाचार कह सुनाया ।

श्रीकृष्ण ने कहा : ‘‘कृष्णे ! इस समय बहुत भूख लगी है, पहले मुझे जल्दी भोजन कराओ फिर सारा प्रबंध करते रहना ।’’ उनकी बात सुनकर द्रौपदी को बड़ा संकोच हुआ ।

‘‘देव ! सूर्यनारायण की दी हुई बटलोई से तभी तक भोजन मिलता है, जब तक मैं भोजन न कर लूँ । आज तो मैं भी भोजन कर चुकी हूँ, अतः अब उसमें भोजन नहीं है ।’’

‘‘कृष्णे ! जल्दी जाओ और बटलोई लाकर मुझे दिखाओ ।’’ हठ करके द्रौपदी से बटलोई मँगवायी । पात्र में जरा-सा साग लगा हुआ था । श्रीकृष्ण ने उसे लेकर खा लिया और कहा : ‘‘इस साग से सम्पूर्ण विश्व के आत्मा यज्ञभोक्ता सर्वेश्वर भगवान श्रीहरि तृप्त और संतुष्ट हों ।’’

इधर मुनि लोगों को सहसा पूर्ण तृप्ति का अनुभव हुआ । बार-बार अन्नरस से युक्त डकारें आने लगीं । यह देख वे जल से बाहर निकले और दुर्वासा मुनि से बोले : ‘‘ब्रह्मर्षे ! इस समय इतनी तृप्ति हो रही है कि कंठ तक अन्न भरा हुआ जान पड़ता है । अब कैसे भोजन करेंगे ?’’

दुर्वासा मुनि अपने शिष्योंसहित पांडवों से बिना मिले ही वहाँ से प्रस्थान कर गये ।

(‘महाभारत’, वन पर्व से संक्षिप्त)

जो लोग सदा धर्म में तत्पर रहते हैं, उनके जीवन में भी कष्ट और विघ्न तो आते हैं पर वे दुःखी और विचलित नहीं होते बल्कि भगवान की शरण व प्रार्थना का आश्रय लेते हैं । इससे उनके कष्ट दूर हो जाते हैं । ईर्ष्यालु एवं द्वेषी चित्त से तो किया-कराया भी चौपट हो जाता है जबकि सच्ची प्रार्थना से बिगड़ी हुई बाजी भी देर-सवेर सँवर जाती है ।