सदगुरु की अनंत महिमा का बखान करते हुए संत एकनाथजी कहते हैं : ‘हे सदगुरु ! मेरा तुम्हें प्रणाम ! तुम स्वयं ही क्षीरसागर हो । तुम्हारे ज्ञानरूपी चन्द्रमा के उदय होने से प्रत्येक जीव प्रसन्न हो उठता है । जिस चन्द्रमा की चाँदनी ने हृदयाकाश को प्रकाशित कर घनघोर अज्ञानरूपी अंधकार के त्रिविध ताप दूर किये, जिस चन्द्रमा की किरणें (शिष्य या सत्संगी रूपी) तृषाकांत चकोरों के लिए स्वानंदामृत का स्राव कर उन्हें सहज ही तृप्त करती हैं, वह तुम्हारा ज्ञानरूपी चन्द्रमा है । अविद्यारूपी अँधेरे में अंधकाररूपी बंधनों से जीवों के जो देहरूपी कमल मुरझाये रहते हैं, वे जिसके किरणरूपी ज्ञान से अत्यंत आनंदित होते हैं, जिस चन्द्रमा को देखते ही जीव के अंतःकरण में आनंद होता है और जो अहंकाररूपी चन्द्रकांत मणि का तत्काल विलय कर देता है, वह तुम्हारा ज्ञानरूपी चन्द्रमा है । अपने पुत्र को पूर्णिमा के काल में पूर्णत्व से पूर्ण वृद्धि मिली यह देखकर क्षीरसागर में ज्वार आता है, फिर भी उसकी गुरुगौरव की मर्यादा का उल्लंघन नहीं होता । अद्वयानुभव के कारण अंतःकरण में आत्मानंद बढ़ता ही रहता है ।
सद्गुरुरूपी क्षीरसागर अत्यंत गहरा है । उसकी ओर आदरपूर्वक देखने से उस पर हिलोरें मारनेवाली वेदांतरूपी लहरों में शब्दरूपी ज्ञानरत्न दृष्टिगोचर होते हैं । उसमें विश्वासरूपी मंदराचल पर्वत तथा वैराग्यरूपी वासुकी के रूप में मथनी को बाँधनेवाली डोर, इनकी सहायता से निज धैर्यरूपी देव-दानव सम-समान भाव से क्षीरसागर का मंथन करने के लिए तत्पर रहते हैं । उस मंथन की पहली ही खलबलाहट में लय, विक्षेप आदि हलाहल उत्पन्न हुए और विवेकरूपी नीलकंठ ने आत्मदृष्टि से उन्हें अपने ही गले में निगल लिया (धारण किया) । फिर अभ्यास की पुनरावृत्ति से सारे कर्मों को विश्राम मिला, उस समय श्रीपति जिसके वश हुए वह आत्मशांतिरूपी लक्ष्मी प्रकट हुई । फिर वहाँ ब्रह्मरस और भ्रमरस इन दोनों से भरा हुआ अमृतकलश, जो देव-दानवों को अत्यंत प्रिय है, वह धीरे-धीरे उस मंथन से बाहर निकला । उसीका बँटवारा करने के लिए श्रीहरि ने मोहिनीरूप लिया और अहंकाररूपी राहु का शिरोच्छेद कर देवताओं को तृप्त किया । वह वृत्तिरूपी मोहिनी तत्काल अपना रूप बदलकर नारायणस्वरूप हो गयी । पूर्व की देहबुद्धि उसमें नहीं रही ।
क्षीरसागर के वे नारायण जिस प्रकार आज भी स्वयं समाधिरूप शेष-शय्या पर सुखपूर्वक अत्यंत संतुष्ट हो अभी तक शयन कर रहे हैं, उस प्रकार सद्गुरु ज्ञानरूपी समुद्र हैं । नारायण आदि अनेक अवतार सचमुच जिनके कारण उत्पन्न होते हैं ऐसे सद्गुरु का पार वेदों की भी समझ में नहीं आता । जिसके सुंदर ज्ञानरूपी रत्न शंकर और विष्णु के गले में तथा मुकुट पर शोभायमान होते हैं और जिसका वेदपाठों ने तथा महान कवियों ने वर्णन किया है ऐसे अत्यंत गम्भीर सुखसागर ! अनंतरूपा ! अपारा ! तुम्हारे परे की वस्तु को कौन जानता है ? विचार की दृष्टि से भी वह नहीं दिखाई देता, वेद भी उसके स्वरूप का वर्णन नहीं कर सकते तो यह मेरी मराठी उसका वर्णन करने में किस प्रकार समर्थ होगी ?
देखो ! सार्वभौम राजा के मस्तक पर कोई सर्वथा नहीं बैठ सकता । लेकिन मक्खी को वहाँ बैठने में कोई कठिनाई नहीं होती । अथवा रानी के स्तन देखने में कौन समर्थ है ? परंतु
उसका बालक बलपूर्वक स्तनपान करता है । उसी प्रकार मेरी यह मराठी भाषा भी गुरु जनार्दन स्वामी की कृपा के सामर्थ्य से आत्मज्ञान के गले लगकर जो निःशब्द है, उस ब्रह्म का भी कथन कर रही है । अस्तु, आकाश घट के अंदर और बाहर व्याप्त रहता है, उसी प्रकार शब्दातीत परब्रह्म शब्दों में भी रहता है । इसलिए प्रस्तुत प्रसंग में व्यर्थ के शब्द घुसाने के लिए स्थान ही नहीं बचा है । बालक बोलना नहीं जानता इसलिए उसका पिता स्वयं बातें कर उससे बुलवाता रहता है । इस बात को भी उसी प्रकार समझना चाहिए क्योंकि मेरी वाणी को बुलवानेवाले मेरे गुरुदेव जनार्दन स्वामी हैं । उन गुरुदेव की कृपादृष्टि से ‘भागवत’ मराठी भाषा में सुना रहा हूँ । करोड़ों ग्रंथों का अवलोकन करने के बाद भी उनके अर्थ में भागवत का ज्ञान दृष्टिगोचर नहीं होता । वही यह ‘श्रीमद्भागवत’ है । उसमें ‘हंसगीत’ नाम का जो ज्ञान है, उसे गुरु जनार्दन की कृपा से देशी भाषा में यथार्थ ढंग से सुनाया । भगवान कहते हैं : हे उद्धव ! एकनिष्ठा से मेरी भक्ति करने से उसके फलरूप ज्ञानरूपी तलवार की प्राप्ति होती है और उसी शस्त्र से संसार की आसक्ति को छेदकर मेरे भक्तों को सायुज्य मुक्ति प्राप्त होती है ।’
(‘श्रीमद् एकनाथी भागवत’ से)