Rishi Prasad- A Spiritual Monthly Publication of Sant Sri Asharam Ji Ashram

ब्रह्मज्ञान का कल्याणकारी विवेचन

‘अवधूत गीता’ में श्री दत्तात्रेयजी ने साधकों के कल्याणार्थ वेदांत-मार्ग द्वारा गूढ़ ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति का सुंदर विवेचन किया है ।

आत्मानं सततं विद्धि सर्वत्रैकं निरन्तरम् ।

अहं ध्याता परं ध्येयमखण्डं खण्ड्यते कथम् ।। (अवधूत गीता : 1.12)

‘आत्मा को (स्वयं को) तुम सर्वदा, सर्वत्र, एक एवं अबाधित (अवरोध या रुकावट रहित) जानो । ‘मैं ध्याता (ध्यान करनेवाला) हूँ’ तथा ‘आत्मा ध्येय (जिसका ध्यान किया जाता है वह) है’ - (ऐसा यदि तुम कहते हो) तो फिर भेदरहित आत्मा को भेदयुक्त कैसे किया जा सकता है ?’

पूज्य बापूजी कहते हैं : ‘‘ध्यान करने से सत्त्वगुण की वृद्धि होती है तो अत्यधिक आनंद आने लगता है । साक्षीभाव है, फिर भी एक रुकावट है । ‘मैं साक्षी हूँ, मैं आनंदस्वरूप हूँ, मैं आत्मा हूँ...’ आरम्भ में ऐसा चिंतन ठीक है लेकिन बाद में यहीं रुकना ठीक नहीं । ‘मैं आत्मा हूँ, ये अनात्मा हैं, ये दुःखरूप हैं...’ इस परिच्छिन्नता के बने रहने तक परमानंद की प्राप्ति नहीं होती । सात्त्विक आनंद से भी पार जो ऊँची स्थिति है, वह प्राप्त नहीं होती । अतएव फिर उसके साथ योग करना पड़ता है कि ‘यह आनंदस्वरूप आत्मा वहाँ भी है और यहाँ भी है । मैं यहाँ केवल मेरी देह की इन चमड़े की दीवारों को ‘मैं’ मानता हूँ अन्यथा मैं तो प्रत्येक स्थान पर आनंदस्वरूप हूँ ।’

ऐसा निश्चय करके जब उस तत्पर साधक को अभेद ज्ञान हो जाता है तो उसकी स्थिति अवर्णनीय होती है, लाबयान होती है, वह जीवन्मुक्त हो जाता है । ब्रह्माकार वृत्ति से अविद्या सदा के लिए समाप्त हो जाती है ।

जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि । (श्री रामचरित. बा.कां. : 7)

बाहरि भीतरि एको जानहु इहु गुर गिआनु बताई ।। (गुरुवाणी)

रामायण, गुरुग्रंथ साहिब और उपनिषदों के परम लक्ष्य में वह परितृप्त रहता है । 

ईशा वास्यमिदँसर्वं...     (ईशावास्योपनिषद् : 1)

वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः । (गीता : 7.19)

वह ऐसा हो जाता है । दर्शनीय, पूजनीय, उपासनीय हो जाता है ।’’

न जातो न मृतोऽसि त्वं न ते देहः कदाचन ।  सर्वं ब्रह्मेति विख्यातं ब्रवीति बहुधा श्रुतिः ।।

(अवधूत गीता : 1.13)

‘(हे शिष्य !) वास्तव में तुम न तो उत्पन्न होते हो और न मरते ही हो, न तो यह देह ही कभी तुम्हारी है । सम्पूर्ण जगत ब्रह्म ही है - ऐसा प्रसिद्ध है और श्रुति भी अनेक प्रकार से ऐसा ही कहती है ।’

सर्वत्र सर्वदा सर्वमात्मानं सततं ध्रुवम् ।

सर्वं शून्यमशून्यं च तन्मां विद्धि न संशयः ।। (अवधूत गीता : 1.33)

‘आत्मा को सर्वत्र, सभी कालों में विद्यमान, सर्वरूप, सतत तथा शाश्वत जानो । सभी शून्य तथा अशून्य को निःसंदेह आत्मस्वरूप समझो ।’

सर्वभूते स्थितं ब्रह्म भेदाभेदो न विद्यते ।

एकमेवाभिपश्यँश्च जीवन्मुक्तः स उच्यते ।।

(जीवन्मुक्त गीता : 5)

‘सभी प्राणियों में स्थित ब्रह्म (परमात्मा) भेद और अभेद से परे है (एक होने के कारण भेद से परे और अनेक रूपों में दिखने के कारण अभेद से परे है) । इस प्रकार अद्वितीय परम तत्त्व को सर्वत्र व्याप्त देखनेवाला (सतत अनुभव करनेवाला) मनुष्य ही वस्तुतः जीवन्मुक्त कहा जाता है ।’