गुरु का अनुग्रह तुमको जल से बाहर निकालने के लिए सहायता हेतु बढ़ाये गये हाथ के समान है अथवा वह अविद्या को दूर करने के लिए तुम्हारे (ईश्वरप्राप्ति के) मार्ग को सरल कर देता है । गुरु, अनुग्रह, ईश्वर आदि की यह सब चर्चा क्या है ? क्या गुरु तुम्हारा हाथ पकड़कर तुम्हारे कान में धीरे-से कुछ कह देते हैं ? तुम उसका अनुमान अपने जैसा ही कर लेते हो चूँकि तुम एक देह के साथ हो, तुम सोचते हो कि तुम्हारे लिए कुछ निश्चित कार्य करने के लिए वे भी एक देह हैं । उनका कार्य आंतरिक है ।
गुरु की प्राप्ति किस प्रकार होती है ? परमात्मा, जो सर्वव्यापी है, अपने अनुग्रह में अपने प्रिय भक्त पर करुणा करता है और भक्त के मापदंड के अनुसार अपने-आपको प्राणी के रूप में प्रकट करता है । भक्त सोचता है कि वे मनुष्य हैं और देहों के मध्य जैसे संबंध होते हैं वैसे संबंध की आशा करता है परंतु गुरु, जो कि ईश्वर अथवा आत्मा के अवतार हैं, अंदर से कार्य करते हैं । व्यक्ति की उसके मार्ग की भूलों को देखने में सहायता करते हैं और जब तक उसे अंदर आत्मा का साक्षात् नहीं हो जाय, तब तक सन्मार्ग पर चलने के लिए उसका मार्गदर्शन करते हैं । ऐसे साक्षात्कार के पश्चात् शिष्य को अनुभव होता है, ‘पहले मैं कितना चिंतित रहता था, आज मैं वही पूर्ववत् आत्मा ही हूँ पर किसी भी वस्तु से प्रभावित नहीं हूँ । जो दुःखी था, वह कहाँ है ? वह कहीं भी नहीं दिखता ।’
अब हमारा क्या कर्तव्य है ? केवल गुरु के वचनों का पालन करो, अंदर प्रयत्न करो । गुरु अंदर भी हैं और बाहर भी । इस प्रकार वे तुम्हारे लिए अंदर अग्रसर होने की परिस्थितियाँ उत्पन्न करते हैं और तुम्हें केन्द्र तक खींचने के लिए अंतरंग को उद्यत करते हैं । इस प्रकार गुरु बाहर से धक्का देते हैं और अंदर से खींचते हैं, जिससे तुम केन्द्र पर स्थिर हो सको ।
सुषुप्ति में तुम अंदर केन्द्रित होते हो । जाग्रत होने के साथ ही तुम्हारा मन बहिर्मुख होता है एवं इस, उस तथा अन्य समस्त वस्तुओं पर विचार करने लगता है । इसका निरोध आवश्यक है । यह उसी शक्ति के द्वारा सम्भव हो सकता है जो अंदर तथा बाहर - दोनों ओर कार्य कर सकती है । क्या उसका एक देह से तादात्म्य किया जा सकता है ? हम सोचते हैं कि ‘हम अपने प्रयास से जगत पर विजय पा सकते हैं ।’ जब हम बाहर से हताश हो जाते हैं और अंतर्मुख होते हैं तो हमें लगता है, ‘ओह ! ओह ! एक शक्ति है जो मनुष्य की अपेक्षा उच्चतर है ।’ उच्चतर शक्ति का अस्तित्व स्वीकृत एवं मान्य करना ही होगा । अहंकार अत्यंत शक्तिशाली हाथी है तथा इसे सिंह से कम कोई भी वश नहीं कर सकता, जो इस उदाहरण में गुरु के अतिरिक्त कोई अन्य नहीं है, जिनका दर्शनमात्र हाथी को कम्पित कर खत्म कर देता है । समय आने पर ही हमें यह मालूम होगा कि जब हम नहीं होते हैं तभी हमारा ऐश्वर्य (महानता, सामर्थ्य) होता है । उस अवस्था को प्राप्त करने हेतु मनुष्य को अपने-आपको समर्पित करते हुए कहना होगा, ‘प्रभु ! आप मेरे आश्रयदाता हैं !’ तब गुरु देखते हैं कि ‘यह व्यक्ति कृपापात्र है’ और कृपा करते हैं ।