झेलम (अखंड भारत के पंजाब प्रांत का एक शहर) में एक दिन ऋषि दयानंदजी का सत्संग सम्पन्न हुआ । अमीचंद ने भजन गाया । दयानंदजी ने उसकी प्रशंसा की । वह जब चला गया तो लोगों ने दयानंदजी से बोला : ‘‘यह तो तहसीलदार है परंतु चरित्रहीन है । अपनी पत्नी को मारता है, उसे घर से निकाल दिया है । शराब पीता है, मांस खाता है...’’ इस प्रकार बहुत निंदा की ।
दूसरे दिन वह आया । ऋषि दयानंदजी ने उसको फिर से भजन गाने को कहा । उसने भजन गाया और उन्होंने फिर से प्रशंसा की : ‘‘तू भजन तो ऐसा गाता है कि मेरा हृदय भर गया । मैं तो कल भी, आज भी भावविभोर हो गया लेकिन देख यार ! सफेद चादर पर एक गंदा दाग लगा है । तू द्वेष करता है, अपनी पत्नी पर हाथ उठाता है । अपनी पत्नी के प्रति द्वेषबुद्धि छोड़ दे । अपनी बुराइयाँ व अहंकार छोड़ दे तो तू हीरा होकर चमकेगा । अरे, हीरा भी कुछ नहीं होता । हीरों-का-हीरा तो तेरा आत्मा है ।...’’ और वह तहसीलदार बदल गया । उसने सारी बुरी आदतें छोड़ दीं और आगे चलकर संगीतकार महता अमीचंद के नाम से प्रसिद्ध हुआ ।
किसीकी बुराई देखकर संत उसको ठुकराते नहीं हैं लेकिन उसकी अच्छाई को प्रोत्साहित करके उसकी बुराई उखाड़ के फेंक देते हैं । इसलिए संत का सान्निध्य भगवान के सान्निध्य से भी बढ़कर माना गया है । भगवान तो माया बनाते हैं, बंधन भी बनाते हैं । संत माया नहीं बनाते, बंधन नहीं बनाते, बंधन काट के मुक्त कर देते हैं, इसलिए भगवान और संत को खूब स्नेह से सुनें और उनकी बात मानें ।