Rishi Prasad- A Spiritual Monthly Publication of Sant Sri Asharam Ji Ashram

सद्गुरु से ही ब्रह्म को ब्रह्मत्व प्राप्त होता है

संत एकनाथजी महाराज सद्गुरु-स्तुति करते हुए लिखते हैं : ‘हे सद्गुरु परब्रह्म ! तुम्हारी जय हो ! ब्रह्म को ‘ब्रह्म’ यह नाम तुम्हारे ही कारण प्राप्त हुआ है । हे देवश्रेष्ठ गुरुराया ! सारे देवता तुम्हारे चरणों में प्रणाम करते हैं ।

हे सद्गुरु सुखनिधान ! तुम्हारी जय हो ! सुख को सुखपना भी तुम्हारे ही कारण मिला है । तुमसे ही आनंद को निजानंद प्राप्त होता है और बोध को निजबोध का लाभ होता है । तुम्हारे ही कारण ब्रह्म को ब्रह्मत्व प्राप्त होता है । तुम्हारे जैसे समर्थ एक तुम ही हो । ऐसे श्रीगुरु तुम अनंत हो । तुम कृपालु होकर अपने भक्तों को निजात्मस्वरूप का ज्ञान प्रदान करते हो । अपने निजस्वरूप का बोध कराकर देव-भक्त का भाव नहीं रहने देते हो ।

जिस प्रकार गंगा समुद्र में मिलने पर भी उस पर चमकती रहती है, उसी प्रकार भक्त तुम्हारे साथ मिल जाने पर भी तुम्हारे ही कारण तुम्हारा भजन करते हैं । अद्वैत भाव से तुम्हारी भक्ति करने से तुम्हें परम संतोष होता है और प्रसन्न होने पर तुम शिष्य के हाथों में आत्मसम्पत्ति अर्पण करते हो । शिष्य को निजात्मस्वरूप-दान से गुरुत्व देकर उसे महान बनाते हो, यह तुम्हारा अतिशय विलक्षण चमत्कार है !

जो वेद-शास्त्रों की समझ में नहीं आता, जिसके लिए वेद रात-दिन वार्ता कर रहे हैं, वह आत्मज्ञान तुम सत्शिष्य को एक क्षण में करा देते हो । करोड़ों वेद एवं वेदांत का पठन करने पर भी तुम्हारे आत्मोपदेश की शैली किसीको भी नहीं आ सकती । अदृष्ट वस्तु ध्यान में आना सम्भव नहीं है । तुम्हारी कृपा-युक्ति का लाभ होने पर ही दुर्गम सरल होता है ।

‘श्रीमद्भागवत’ अगम्य है, उस पर एकादश स्कंध का अर्थ अत्यंत गहन है लेकिन तुम सद्गुरु समर्थ और कृपालु हो, इसलिए तुमने मुझसे उसका अर्थ प्राकृत भाषा में करवाया । जिस प्रकार माँ दही को मथकर उसका मक्खन निकाल के बालक को देती है, उसी प्रकार मेरे गुरुदेव जनार्दन स्वामी ने यहाँ किया है । वेद-शास्त्रों का मंथन कर व्यासजी ने ‘श्रीमद्भागवत’ निकाला, उस भागवत का मथितार्थ (मथ के निकाला गया) यह ग्यारहवाँ स्कंध है, ऐसा निश्चित समझना चाहिए । उस एकादश स्कंध का माधुर्य स्वयं मेरी समझ में नहीं आया इसलिए मेरे सद्गुरु जनार्दन स्वामीजी ने उसका मंथन कर उसका सार तत्त्व मुझे निकालकर दिया । उसे सहज ही मुख में डाला तो उस एकादश की माधुरी मेरी समझ में आयी । उसी माधुर्य की चाह से यह टीका तैयार हो रही है । इसलिए एकादश स्कंध पर की यह टीका अकेले एक एकनाथ से नहीं बल्कि एक से एक मिलकर बाहर आ रही है । एक पीछे और एक आगे - यही एकादश अर्थात् ग्यारह का स्वरूप है ।

सद्गुरु जनार्दन स्वामी ने अपना एकपन एक में (अद्वैत में) दृढ़ किया । वही एकादश स्कंध के अर्थ में आया है । एका (एकनाथ) में एकत्व घुल-मिल गया । भोजन में जिस प्रकार मिष्टान्न का ग्रास होता है, उसी प्रकार भागवत में यह एकादश स्कंध है ।