Rishi Prasad- A Spiritual Monthly Publication of Sant Sri Asharam Ji Ashram

भक्त या संत को सताने का फल

‘अद्भुत रामायण’ में एक वृत्तांत आता है, जिसे महर्षि वाल्मीकिजी ने समस्त पापों को हरनेवाला और शुभ बताया है ।

मानस पर्वत की कोटर में एक उल्लू रहता था, जो देवताओं, विद्याधरों, गंधर्वों और अप्सराओं का गायनाचार्य था । वह किस प्रकार गायनाचार्य के पद पर प्रतिष्ठित हुआ इस बारे में देवर्षि नारदजी द्वारा पूछे जाने पर उसने पूर्व वृत्तांत बताते हुए कहा : ‘‘हे नारदजी ! भुवनेश नामक एक धर्मात्मा राजा था । वह अनेकों अश्वमेध यज्ञ, वाजपेय यज्ञ कर चुका था । उसने करोड़ों गायें, स्वर्ण, वस्त्र, रथ, घोड़े आदि दान किये थे । वह अपनी प्रजा का अच्छी तरह से पालन करता रहा किंतु उसने भगवान के लिए गानयोग (गायन द्वारा गुणगान) पर प्रतिबंध लगा दिया था । वह कहता था कि ‘‘गानयोग से सिर्फ मेरा यशगान करो; जो मेरे सिवाय किसी और का गुणगान करेगा, वह मारा जायेगा ।’’

उसके राज्य में हरिमित्र नामक एक भक्त रहते थे । वे नदी-किनारे जाकर भगवान का पूजन और वीणा बजाते हुए प्रीतिपूर्वक उनका गुणगान करते थे ।

राजा भुवनेश को इस बात का पता चला तो उसने अपने सैनिक भेजे । उन्होंने हरिमित्र की भजन-पूजन की सामग्री नष्ट कर दी और उन्हें बंदी बनाकर राजा के सामने ले आये । सत्ता के मद में चूर हुए एवं चापलूसों की चाटुकारिता से अत्यंत घमंडी बने भुवनेश ने हरिमित्र का सबके सामने खूब अपमान किया, उनका धन छीनकर उन्हें राज्य से निकाल दिया ।

समय बलवान है । कुछ समय बाद राजा मर गया । अपने कर्मों के फलस्वरूप वह उल्लू बना । सर्वत्र गति करनेवाला होकर भी वह थोड़ा-सा भी भोजन प्राप्त नहीं कर सका । भूख से अत्यंत आर्त, खिन्न और दुःखित होता हुआ यमराज से कहने लगा : ‘‘हे देव ! मैं भूख से अत्यंत पीड़ित हूँ । मैंने ऐसा कौन-सा पाप किया है और अब मुझे क्या करना चाहिए ?’’

यमराज प्रकट होकर बोले : ‘‘तुमने अनेक पाप किये हैं । तुमने हरिमित्र को भक्ति करने से रोका था, उनका धन छीना था । भगवान के गुणगान पर रोक लगाकर प्रजा से स्वयं का यशगान कराया था । इसी कारण तुम्हारे स्वर्गादि लोक नष्ट हो गये । अब तुझे अपने पहले त्यागे हुए शरीर को नोच-नोचकर नित्य खाना होगा । इस प्रकार तुम्हें एक मन्वंतरपर्यंत महानरक में निवास करना है । फिर कुत्ता होना पड़ेगा । उसके बाद दीर्घकाल बीतने पर तुम्हें मनुष्य देह की प्राप्ति होगी ।’’

हे नारदजी ! जो पूर्वकाल में राजा था, मैं वही हूँ, अब उल्लू की योनि को प्राप्त हुआ हूँ ।

हे मुने ! उन भक्तराज को सताने का जो कर्म मैंने किया था, यह उसीका फल मुझे मिला है । तभी से मैं इस पर्वत की कोटर में रह रहा हूँ । मुझे भूख लगने पर खाने हेतु मेरा ही मृत शरीर मेरे सामने उपस्थित हो गया । मैं भूख से व्याकुल होकर जब उसे खाने को तैयार हो गया, तभी दैवयोग से सूर्य के समान प्रकाशमान विमान पर आरूढ़, विष्णुदूतों के साथ हरिमित्र यहाँ आये । उन्होंने मुझे मृतदेह के पास देखा तो दयापूर्वक पूछा : ‘‘हे उलूक ! यह शरीर तो राजा भुवनेश का दिखाई दे रहा है ! तुम इसका भक्षण करने को क्यों उद्यत हो ?’’

मैंने उन्हें प्रणाम किया और अपना समस्त वृत्तांत विनयपूर्वक कहा : ‘‘पूर्वकाल में आपके प्रति जो अपराध मुझसे बन गया था, यह उसीका फल है । इसके बाद मुझे कुत्ते की योनि मिलेगी । उसके पश्चात् मनुष्य-जन्म मिलेगा ।’’

दयालु हरिमित्र करुणा से भरकर बोले : ‘‘हे उलूक ! तुमसे जो अपराध हुआ था, मैं उसे क्षमा करता हूँ । यह शव अब अंतर्धान हो और तुम श्वान (कुत्ता) भी न बनो । मेरे प्रसाद से तुम्हें गानयोग की उपलब्धि होगी और भगवान की स्तुति गाने के लिए तुम्हारी जिह्वा स्पष्टता को प्राप्त होगी । तुम देवताओं, विद्याधरों, गंधर्वों और अप्सराओं के गायनाचार्य होकर विविध भाँति के भक्ष्य-भोज्यों से सम्पन्न हो जाओगे । इसके बाद कुछ ही दिनों में तुम्हारा सब प्रकार से कल्याण होगा ।’’

हे द्विज ! हरिमित्र के ऐसा कहते ही वह नारकीय दृश्य लुप्त हो गया । महापुरुषों की ऐसी ही करुणामयी प्रवृत्ति होती है । वे अपराध करनेवालों के भी दुःखों को नष्ट कर देते हैं । इस प्रकार हरिमित्र अमृतमय वचन कहकर हरिधाम को गये । हे नारदजी ! इस प्रकार मुझे गायनाचार्य का पद प्राप्त हुआ ।’’

जरा सोचिये, जब भगवान को प्रीतिपूर्वक भजनेवाले एक भक्त को सताने से ऐसी दुर्गति हुई तो भगवान के परम प्रिय ब्रह्मज्ञानी संतों को सताने से कितना भयंंकर दोष लगेगा और कैसी दुर्गति होगी ! सताते समय पता न भी चले तो भी उस कर्म का फल तो भुगतना ही पड़ता है, अनेक नीच योनियों में जाना ही पड़ता है । नीच योनियों की सृष्टि ही ऐसे महापापों के फल भोगने के लिए हुई है, कोई शास्त्रों-पुराणों को पढ़कर देख ले । संत-अपमान के महापाप के फल से कोई नहीं बचा सकता पर सच्चे दिल से उन्हींसे क्षमा-याचना कर ली जाय तो वे क्षमा भी कर देते हैं । संतों के अपमान से मनुष्य तबाही की खाई में गिरता है तो संतों की कृपा से ऊपर भी उठता है । उनकी सेवा तथा आज्ञापालन के द्वारा ऊँचे-में-ऊँचा मनुष्य-जन्म का सुफल परमानंद की प्राप्ति भी कर सकता है ।