(दूरदर्शन पर पूर्व में प्रसारित पूज्य बापूजी का पावन संदेश)
प्रश्न : धर्म क्या है ? धर्म और ईश्वर का क्या संबंध है और इन दोनों का मनुष्य से क्या संबंध है ?
पूज्य बापूजी : बढ़िया सवाल है । धर्म क्या है ? इन्द्रियों के बेकाबू होने से मनुष्य नरपशु की नाईं जीवन गुजारता है । धर्म उसे संयत करता है ।
शास्ति इति शास्त्रम् । जो हमारे मन, इन्द्रियों को अनुशासित करके पतन से बचा के ऊर्ध्वमुखी करे, उस ज्ञान का वर्णन जिन ग्रंथों में है उनको ‘शास्त्र’ कहते हैं ।
तो धर्म हमारे भोग को नियंत्रित करता है, हमारी बिखरती हुई ऊर्जा को नियंत्रित करके सही रास्ते लगाता है और सही रास्ता यह है कि मुक्ति, शाश्वत आनंद, शाश्वत जीवन की ओर जायें । जो शाश्वत आनंद है, जीवन है वह ईश्वर है और ईश्वर से जोड़नेवाला धर्म है । संयमी बनाकर अंतःकरण को शुद्ध करके चित्त को एकाग्र करके परब्रह्म-परमात्मा को पाये हुए महापुरुषों को समझने की, उनकी कृपा को झेलने की तथा हमारी क्षमताओं का विकास करनेवाली जो व्यवस्था है उसे ‘धर्म’ कहते हैं ।
प्रश्न : यदि सब कुछ तय है, जैसे कहा जाता है कि ‘ईश्वर की मर्जी के बगैर पत्ता भी नहीं हिल सकता और सब कुछ भाग्य में लिखा है’ तो फिर कर्म करने की आवश्यकता क्यों है ?
पूज्यश्री : ईश्वर की सत्ता के बिना पत्ता भी नहीं हिलता यह बात जितनी सत्य है, उतनी ही यह बात भी सत्य है कि तुम्हारे किये बिना कुछ नहीं हो सकता । जैसे बिजली के भिन्न-भिन्न उपकरण लगे हैं परंतु बिजली की सत्ता के बिना कोई उपकरण या यंत्र चालू होगा ही नहीं तो क्या करें ? क्या बिजली अपने-आप उपकरण चलायेगी ? बिजली तो सत्तामात्र है । ऐसे ही ईश्वर सत्तामात्र है और उस सत्ता का आप सही उपयोग करो या गलत उपयोग करो, यह आप पर निर्भर है । ईश्वर सत्तामात्र है और जल, तेज, वायु, आकाश व पृथ्वी में उसकी सत्ता व्याप्त है । जैसे - सूर्य (तेज तत्त्व) की सत्ता के बिना कोई पेड़-पौधा नहीं उग सकता है । तो क्या हम चुप बैठे रहें ? इससे हमारा बगीचा तो नहीं बन जायेगा । जंगल को काटना है तब भी हमें पुरुषार्थ करना है । बगीचा लगाना है तब भी हमें पुरुषार्थ करना है । सत्ता तो सूर्य की है लेकिन हम उसका उपयोग करके अपने जीवन को निखारें या बैठे रहें, यह तो हमारे हाथ की बात है ।
प्रश्न : तो क्या भाग्य नहीं है ?
पूज्य बापूजी : भाग्य है ।
प्रश्न : यदि भाग्य है तो जो भाग्य में है वह मिलना ही है तो फिर हम इस प्रकार कर्म क्यों करें ?
पूज्यश्री : देखिये, आज का पुरुषार्थ कल का भाग्य है । भाग्य भी 3 प्रकार के माने गये हैं - मंद प्रारब्ध, तीव्र प्रारब्ध, तरतीव्र प्रारब्ध । मानो पूर्वकाल में किसीने कोई गलती की है, कोई साधारण पाप किया है या मध्यम पाप किया है कि बड़ा भारी पाप किया है तो उसके अनुसार ही उसका फल भोगने का प्रारब्ध होगा (मंद, तीव्र या तरतीव्र) । अथवा पूर्वकाल में उसने पुण्य किया है - साधारण, मध्यम या उत्तम । तो पूर्वकाल में अगर उसने उत्तम पुण्य किया है तो उसे सुख-सुविधाएँ मिलेंगी । अब सुख-सुविधाएँ तो प्रारब्ध-वेग से मिलीं, थोड़ा-सा प्रयास किया और मिलीं । उसके जितना पुरुषार्थ दूसरे लोग करते हैं तो उनको नहीं मिलतीं लेकिन उसको आसानी से मिलती हैं । अब वह उनमें आसक्त हो जाय या उनका उपयोग अपने लिए, बहुतों के लिए करे इसमें वह स्वतंत्र है ।