प्रेम हर प्राणी के स्वतःसिद्ध स्वभाव में है लेकिन वह प्रेम जिस चीज में लगता है, वही रूप हो जाता है । प्रेम पैसों की तरफ जाता है तो लोभ बन जाता है, प्रेम परिवार के इर्दगिर्द मँडराता है तो मोह बन जाता है, प्रेम शरीर या पद की तरफ जाता है तो अहंकार बन जाता है, प्रेम बहुजनहिताय कर्म की तरफ जाता है तो कर्मयोग बन जाता है, प्रेम प्रभु की तरफ जाता है तो भक्तियोग बन जाता है और प्रेम पूर्णता की तरफ जाता है तो पूर्ण प्रेम पूर्ण ही बना देता है ।
सभीका ईश्वर के साथ स्वतःसिद्ध अपनत्व है, स्वतःसिद्ध प्रेम है, स्वतःसिद्ध अविनाशी नाता है । शरीर का और आपका नाता विनाशी है । पति-पत्नी का प्रेम काम की प्रधानता से है, सेठ और नौकर का प्रेम रुपये और कार्य की प्रधानता से है । दुनियावी प्रेम जो है, इन्द्रियों, मन और भोग की प्रधानता से है लेकिन जीवात्मा का परमात्मा से प्रेम स्वतःसिद्ध है ।
सोचा मैं न कहीं जाऊँगा,
यहीं बैठकर अब खाऊँगा ।
जिसको गरज होगी आयेगा,
सृष्टिकर्ता खुद लायेगा ।।*
यह प्रेम की भाषा है, अहं की भाषा होती तो भूखे मर जाते । यह स्वतःसिद्ध प्रेम की भाषा है । कानूनी प्रेम की भाषा, पति-पत्नी के प्रेम की भाषा होती तो भूखे मरते ।
ज्यूँ ही मन विचार वे लाये,
त्यूँ ही दो किसान वहाँ आये ।
और किसान क्या बोलते हैं ? ‘‘रात को सपने में मार्ग देखा ।’’ मेरे को तो सुबह विचार आया लेकिन मेरा प्रेमास्पद (परमात्मा) पहले ही सोचता है कि ‘इसे सुबह विचार आयेगा’ तो रात को स्वप्न में दिखा देता है किसानों को रास्ता !
बच्चे को माँ दुत्कार देती है, फिर भी बच्चा खिंच-खिंचकर माँ की तरफ आता है और कभी माँ को बच्चा मुक्के मार के रूठ के चला जाता है तो माँ : ‘‘बेटा ! खा ले, खा ले ।...’’ कह के मनाने की कोशिश करती है ।
बेटा : ‘‘नहीं खाना, मैं तुम्हारे घर में नहीं आऊँगा ।’’ पैर पटकता-पटकता विद्यालय जाता है । कक्षा में बैठा है । दोपहर की छुट्टी होने के पहले माँ पहुँच जाती है ।
माँ : ‘‘मास्टर साहब !...’’
मास्टर साहब : ‘‘अरे माई ! रुको, रुको ।...’’
‘‘अरे, मेरा बेटा बिना खाये निकला है ।’’
माँ बुलाती है : ‘‘बेटा !’’
बेटा बोलता है : ‘‘नहीं खाना है !’’
‘‘बेटा ! तू नहीं खायेगा तो मैं कैसे खाऊँगी ?’’
माँ का प्रेम बेटे को खिलाये बिना नहीं रहता है और बेटा भी माँ को देखते-देखते फिर गले लग जाता है । प्रेम स्वतःसिद्ध है । स्वतःसिद्ध प्रेम को अगर पहचान लें तो नीरसता चली जायेगी और निर्दुःखता स्वाभाविक आ जायेगी ।
जीव प्रेमस्वरूप परमात्मा का अभिन्न अंग है, जैसे तरंग समुद्र अथवा पानी का अभिन्न अंग है । कोई भी तरंग आपको सड़क पर दौड़ती हुई मिले तो मुझे बताना । मैं आपका चेला बन जाऊँगा । जब भी तरंग दौड़ेगी तो पानी पर ही दौड़ेगी, सड़क पर नहीं दौड़ेगी । ऐसे ही जो फुरना होता है, जो विचार आते हैं, संकल्प-विकल्प होते हैं वे चैतन्यस्वरूप, प्रेमस्वरूप आत्मचैतन्य से ही उठते हैं । लेकिन वह प्रेम जब देखना, सूँघना, सुनना, चखना, स्पर्श करना - इन पाँच विकारों में भटकता है अथवा मान-बड़ाई, शारीरिक आराम या तामसी आराम में भटकता है तो वह प्रेम तबाही की तरफ ले जाता है ।
भगवान राम के गुरुदेव वसिष्ठजी महाराज कहते हैं : ‘‘हे रामजी ! तीन पदार्थ बड़े अनर्थ और परम सार के कारण हैं - एक तो लक्ष्मी (सम्पदा), दूसरा आरोग्य और तीसरा यौवन अवस्था ।’’
अगर इनका सदुपयोग प्रेमास्पद (ईश्वर) के लिए किया जाय तो परमात्मप्राप्ति शीघ्र होती है । अगर इनके द्वारा संसार के सुखों का उपभोग किया जाय तो जीव दुःखों की खाई में जा गिरता है, जन्म से जन्मांतर के चक्र में पहुँच जाता है । राजा नृग बड़ा प्रसिद्ध था लेकिन मरने के बाद गिरगिट हो गया क्योंकि प्रेम शरीर में था, भोगों में था । राजा अज मरने के बाद साँप हो गया ।
प्रेम न खेतों ऊपजे प्रेम न हाट बिकाय ।
राजा चहो प्रजा चहो शीश दिये ले जाय ।।
अहं दिये ले जाय ।।
प्रेम और वासना में क्या फर्क है ? वासना को कितना भी दो, तृप्ति नहीं होगी और प्रेम लेकर तृप्त नहीं होता है, देकर तृप्त होता है ।
प्रेम जब संसार में लगता है अर्थात् सरकनेवाले गलियारों में जाता है तो वह विकार बनता है, काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार बनता है, हमें यश का गुलाम बनाता है, आराम का पिट्ठू बनाता है । ऐसा करके जीव को नीच गतियों में ले जाता है । ऐसे प्रेम को काम कहेंगे । काम जीव को भीतर से बाहर ले आता है और प्रेम बाहर से भीतर ले जाता है आत्मिक शांति में । कामनाएँ अशांति की तरफ ले जाती हैं और प्रेम परमात्म-शांति की तरफ ले जाता है । कामनाएँ परिणाम में दुःख देती हैं और प्रेम परिणाम में आनंदस्वरूप ईश्वर के साथ एकाकार करता है । कामनाएँ विकारी हैं और प्रेम निर्विकारी है । कामनाएँ नाशवान हैं, ‘अभी यह खाऊँ, वह खाऊँ... यह देखूँ, वह देखूँ... यहाँ जाऊँ, वहाँ जाऊँ...’ उसके बाद दूसरी कामनाएँ पैदा हो जाती हैं और प्रेम अविनाशी की तरफ ले जाता है । कामना जड़ता की तरफ ले जाकर जीव को फँसाती है और प्रेम उसे चैतन्यस्वरूप की तरफ ले आता है । कामनाएँ वासना-विकारों को बढ़ाती रहती हैं और भगवद्भक्ति व प्रेम इच्छाओं या कामनाओं को शांत करके भगवत्सुख, भगवत्शांति, भगवन्माधुर्य देते रहते हैं ।