एक गरीब परिवार में एक बालक ने जन्म लिया । उसके माता-पिता ने उसे अक्षरज्ञान के साथ संस्कृत-ज्ञान तथा धर्मग्रंथों के सुंदर संस्कार भी दिये ।
जब बालक 5 वर्ष का हुआ, तब पिताजी उसे पंडित हरदेवजी की पाठशाला में भर्ती कराने के लिए ले गये । पंडितजी ने पूछा : ‘‘बालक ! क्या कोई श्लोक जानते हो ?’’
बालक : ‘‘जी हाँ ।’’
‘‘बहुत अच्छा, जरा सुनाओ तो !’’
बालक ने गुरुजी के पास जाकर उनके पैर छुए । हरदेवजी का हृदय पुलकित हो गया । फिर बालक ने पिताजी को झुककर प्रणाम किया और पिताजी द्वारा प्रतिदिन सिखाये गये श्लोकों को सुनाना प्रारम्भ किया ।
गुरुजी प्रसन्नता से बोले : ‘‘कोई कविता आती हो तो सुनाओ ।’’
‘‘जी गुरुजी !’’ बालक द्वारा मीठे स्वर में गायी गयी कविता वातावरण को मधुमय बना गयी ।
बालक की विनम्रता व कुशाग्रता देखकर गुरु हरदेवजी बहुत प्रसन्न हुए और उनके हृदय से आशीर्वाद बरस पड़े : ‘‘बेटा ! तुम अपने कुटुम्ब को स्थायी कीर्ति प्राप्त कराओगे । तुम्हारे कारण तुम्हारा कुटुम्ब महान बनेगा ।’’
जानते हो वह बालक कौन था ? महामना मदनमोहन मालवीयजी, जिनकी कीर्ति आज भी भारतीय इतिहास के आकाश में एक उज्ज्वल नक्षत्र की नाईं जगमगा रही है ।
जो माता-पिता और गुरुजनों को प्रणाम करता है, उनका आदर-सम्मान करता है, उसे उनके हृदय से बरसे आशीर्वाद तो मिलते ही हैं, साथ ही नम्रता, शील, संयम, सदाचार जैसे सद्गुण उसमें सहज ही आने लगते हैं । महान लोगों का प्रथम गुण उनकी नम्रता ही है ।
उन्नति के गगन में तीव्र गति से उड़ान भरने के लिए बहुत परिश्रम की आवश्यकता नहीं है । दो ही बातें काफी हैं - भगवान के रास्ते, संयम-सदाचार के रास्ते आगे बढ़ने में मदद करनेवाले अपने हितैषी माता-पिता का आदर और भगवत्प्राप्ति के रास्ते पर आगे बढ़ानेवाले परम हितैषी सद्गुरु का आज्ञापालन ।