इस (अहमदाबाद आश्रम की) भूमि को साधारण मत समझना । तीर्थत्व है इसमें । यहाँ पूर्वकाल में जाबल्य ऋषि का आश्रम था । (ऊपरवाले) बड़ बादशाह के पास जहाँ कार्यालय है, वहाँ नींव खोदते गये तो यज्ञ की राख निकलती गयी । उसे हमने भी निकाला और हमारे सेवकों ने भी । कितनी ट—कें राख निकली होगी, हम बता नहीं सकते ।
जब हम मोक्ष कुटीर में रहते थे, तब एक बार हमारा बड़ौदा की तरफ सत्संग था तो हम ताला लगा के चले गये । उस समय यहाँ आसपास की जमीन में गहरे चौड़े गड्ढे और खाइयाँ थीं (गुजराती में वांघां-कोतरां) और दारू की भट्ठियाँ थीं । उन लोगों का दारू बनाना और बेचना पेशा था । कुछ लोग आये और ताला तोड़ दिया । मैं आपको सत्य बताता हूँ, ताला टूटा लेकिन उनसे दरवाजा नहीं खुला । होल्डर (कब्जे) में जो लोहे का डंडा होता है, वह चिपका रहा । तब वे लोग मत्था टेक के गये कि ‘क्या बाबा हैं ! क्या कुटिया है !’ धरती का महत्त्व था ।
अवैध शराब बनानेवालों की यहाँ पहले 40 भट्ठियाँ चलती थीं । धीरे-धीरे वे सारी भट्ठियाँ बंद हो गयीं और इस तीर्थ का निर्माण हो गया, जिसका फायदा आज सबको मिल रहा है । यहाँ जो सत्संग जमता है, वह कुछ निराला ही होता है । करोड़ों-करोड़ों दिल यहाँ आ के गये, उनमें कई उत्तम आत्मा भी होंगे, कई संत भी आकर गये ।
पिछले 44 साल से यहाँ सतत ध्यान-भजन, सत्संग-सुमिरन होता है । मुख्य सड़क से थोड़ा-सा आश्रम की सड़क पर पैर रखते ही आनेवाले के विचारों में, भावों में, मन में परिवर्तन होना शुरू हो जाता है । और जब तक इस माहौल में वह रहेगा, तब तक उसके भाव, विचार ऊँचे रहेंगे, फिर बाहर गया तो धीरे-धीरे वह अपनी कपोल-कल्पित दुःखाकर, सुखाकार, चिंताकार वृत्तियों में खो जायेगा । इसलिए तीर्थ में जाने का माहात्म्य है क्योंकि जहाँ लोगों ने तप किया, साधन, ध्यान किया है, वहाँ जाने से अच्छी अनुभूति होती है । और आत्मशांति के तीर्थ में जिन्होंने प्रवेश किया है, उनके रोमकूपों एवं निगाहों से निकलनेवाली तरंगों से, वाणी से, उनकी हाजिरीमात्र से वे जहाँ रहते हैं वह जगह प्रभावशाली हो जाती है ।