Rishi Prasad- A Spiritual Monthly Publication of Sant Sri Asharam Ji Ashram

एक जीवन्मुक्त महापुरुष की अपनी माँ के साथ सहज चर्चा

ब्रह्मवेत्ता पूज्य बापूजी ने अपनी मातुश्री को ईश्वरप्राप्ति के मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए कैसे प्रेरित किया - इस विषय को उजागर करते हुए स्वयं अम्माजी (माँ महँगीबाजी) बताया करती थीं ।

पूज्यश्री एवं अम्मा के बीच हमेशा सामान्य बातें नहीं होती थीं । पूज्यश्री चाहते थे कि अम्मा का आध्यात्मिक स्तर उन्नत हो । इसलिए उनसे जब भी मिलते थे तो हँसते-खेलते, भजन सुनाते हुए अपनी प्यारी अम्मा को आत्मज्ञान के अमृत का ही पान कराते थे । इसी कारण अम्मा का चित्त भी सदा परमात्मा के तत्त्व में ही रमण करने लगा था । प्रस्तुत हैं पूज्य बापूजी और अम्माजी की ब्रह्मचर्चा के कुछ अंश -

बापूजी : ‘‘भगवान कहाँ हैं ?’’

अम्मा : ‘‘अपना-आपा हैं ।’’

बापूजी : ‘‘हाँ, आनंद देनेवाले भगवान अपना-आपा हैं ।

राम जिन जे मन में, तिन जा सला थिया सावा...

राम जिनके मन में बसे हैं, उनका भाग्य हरा-भरा हो जाता है । उनकी बराबरी कौन कर सकता है ! अब हर काम भगवान सफल कर देंगे । बोलो श्रीराम...

मिलना है तो मिल लो रे भाई,

साधु यह मिलन की वेला है ।

मानुष जनम हीरा हाथ न आवे रे,

चौरासी लख योनि में भटक जावे रे ।

ॐस्वरूप अपना ध्यान करो, अमर आत्मा का चिंतन करो, मुक्त हो जाओ ।’’

अम्मा : ‘‘ॐ... ॐ... मैं अमर आत्मा हूँ ।

मुंqहजो सार्इं त पीरनि जो पीर आ,

जंqह जी संगत बि खंड ऐं खीर आ

बारहां ई महिना मौज मचे हिन दर ते,

गुरुअ दर ते...’’

(मेरे साँर्इं तो शाहों के शाह हैं, जिनकी संगत भी दूध-मिश्री के समान मधुर है । गुरु के इस दर पर बारहों महीने मौज लगी रहती है ।)

बापूजी : ‘‘मेरी अम्मा ब्रह्मस्वरूप हैं जिनकी संतानें भी ब्रह्म हैं । वे तो बारहों महीने ॐ का जप करती हैं, ॐस्वरूप हैं... उनको तो नित्य सर्वत्र आनंद-ही-आनंद है, चलो तो चलकर सत्संग सुनें...’’

फिर अम्मा ने पूज्यश्री को तुलसी का हार पहनाते हुए कहा : ‘‘मेरे साँर्इं ! तुलसी का हार पहनो ।’’

‘‘माई ! यह तुलसी की माला बहुत लाभप्रद है । जो तुलसी का पत्ता मुँह में डाले, तुलसी की माला शरीर पर धारण करे और पवित्रों से भी पवित्र परमात्मा की सत्ता को सबमें निहारे, वह मुक्तात्मा हो जाता है । बोलो श्रीराम... ॐ... ॐ... ॐ...’’

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अम्माजी शरीर छोड़ने की बात कर रही थीं, तब पूज्य महाराजश्री बापूजी उनकी अपने प्रति अगाध श्रद्धा का सुंदर सदुपयोग करते हुए उन्हें जीवन्मुक्ति की ओर अग्रसर कर रहे हैं :

बापूजी : ‘‘अभी जल्दी नहीं जाना... व्यर्थ समय न जाय, ॐ ॐ जपते कमाई कर लो, पक्का ब्रह्मज्ञान पाना है । अभी नहीं जाना है । बाद में मेरी गोद में सिर रखना ।’’

अम्मा : ‘‘अभी रख दूँ ?’’

‘‘अभी नहीं, बाद में जब भेजना होगा तब मेरी गोद में सिर रखना । गाय के गोबर से लीपन करेंगे और मुँह में तुलसी का पत्ता डालेंगे । ॐ ॐ... मैं अमर आत्मा हूँ... ॐ ॐ... इस प्रकार से भगवान में मिल जाना । फिर और कहीं भटकना नहीं है । दूसरा जन्म नहीं लेना है । जैसे घड़े के टूट जाने पर उसके भीतर जो आकाश तत्त्व होता है वह उस महाकाश में मिल जाता है । जैसे घड़े का आकाश व्यापक आकाश में मिल जाता है, वैसे ही मेरी प्यारी माँ का आत्मा व्यापक परमात्मा में मिल जायेगा । बोलो श्रीराम... ठीक है ? मुक्त होना है । ॐ ॐ... ब्रह्म... ॐ व्यापक...

ओ मुqहजी जीजल अमां, तुंqहजा धक बि भला ।

तुंqहजा बुजा बि भला, पर शाल हुजीं हयात ।

‘जीजल (प्यारी) अम्मा ! तेरी मार भी अच्छी, तेरी डाँट भी अच्छी पर तू रह हयात ।’

तू अमर आत्मा, खुद खुदा है । न कोई दूसरा जन्म लेना है, न स्वर्ग में जाना है । बोलो श्रीराम...

राम का मतलब है अमर आत्मा, जो रोम-रोम में बसता है । तुझमें राम, मुझमें भी राम, इसमें भी राम, सबमें राम, राम-ही-राम... बोलो श्रीराम... !

मौज आ गयी ! ॐ ॐ... अम्मा को अच्छा लगता है ?’’

अम्मा : ‘‘हाँ, कुछ-न-कुछ कहते रहो, अच्छा लगता है ।’’

‘‘अच्छा लगता है ! माई ! राम बाहर नहीं हैं, भीतर ही हैं । अड़सठ तीर्थ अपने भीतर ही हैं । नारायण भी तू, जेठे (बड़े भाई) की माँ भी तू, साँर्इं भी तू, सच्चा सरताज भी तू और मेरी जीजल माँ भी तू... सबमें बसी है तू ! बोलो श्रीराम...’’

कितना ज्ञानमय परिसंवाद है ! इसे पढ़-सुनकर तो ‘श्रीमद् भागवत’ का भगवान कपिल एवं उनकी मातुश्री श्री देवहूतिजी के बीच का परिसंवाद आँखों के सामने साकार हो जाता है । जो इस परिसंवाद को पढ़ेगा, सुनेगा, सुनायेगा उसको जीते-जी आत्मानंद, आत्मसुख और सारे बंधनों से मुक्ति पाने का नजरिया मिल जायेगा ।