Rishi Prasad- A Spiritual Monthly Publication of Sant Sri Asharam Ji Ashram

सद्गुरु तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं...

ब्रह्मवेत्ता गुरु ने अपने सत्शिष्य पर कृपा बरसाते हुए कहा : ‘‘वत्स ! तेरा-मेरा मिलन हुआ है (तूने मंत्रदीक्षा ली है) तब से तू अकेला नहीं और तेरे-मेरे बीच दूरी भी नहीं है । दूरी तेरे-मेरे शरीरों में हो सकती है, आत्मराज्य में दूरी की कोई गुंजाइश नहीं । आत्मराज्य में देश-काल की कोई विघ्न-बाधाएँ नहीं आ सकतीं, देश-काल की दूरी नहीं हो सकती । तू अब आत्मराज्य में आ रहा है, इसलिए जहाँ तूने आँखें मूँदीं, गोता मारा वहीं तू कुछ-न-कुछ पा लेगा ।’’

करतारपुर में सत्संगियों की भारी भीड़ में गुरु नानकजी सत्संग कर रहे थे । किसी भक्त ने ताँबे के ४ पैसे रख दिये । आज तक कभी भी नानकजी ने पैसे उठाये नहीं थे परंतु आज चालू सत्संग में उन पैसों को उठाकर दायीं हथेली से बायीं और बायीं हथेली से दायीं हथेली पर रखे जा रहे हैं । नानकजी के शिष्य बाला और मरदाना चकित-से रह गये । ताँबे के वे ४ पैसे, जो कोई १०-१० ग्राम का एक पैसा होता होगा, करीब ४० ग्राम होंगे ।

नानकजी बड़ी गम्भीर मुद्रा में बैठे हुए, सत्संग करते हुए पैसों को हथेलियों पर अदल-बदल रहे हैं । वे उसी समय उछाल रहे हैं, जिस समय हजारों मील दूर उनका भक्त जो किराने का धंधा करता था, वह वजीर के लड़के को शक्कर तौलकर देता है । शक्कर किसी असावधानी से रास्ते में थैले से ढुल गयी । वजीर ने शक्कर तौली तो ४ रानी छाप पैसे के वजन की शक्कर कम थी । वजीर ने राजा से शिकायत की । उस गुरुमुख को सिपाही पकड़कर राजदरबार में लाये ।

वह गुरुमुख अपने गुरु को ध्याता है ‘नानकजी ! मैं तुम्हारे द्वार तो नहीं पहुँच सकता हूँ परंतु तुम मेरे दिल के द्वार पर हो, मेरी रक्षा करो । मैंने तो व्यवहार ईमानदारी से किया है लेकिन अब शक्कर रास्ते में ही ढुल गयी या कैसे क्या हुआ यह मुझे पता नहीं । जैसे, जो भी हुआ हो, कर्म का फल तो भोगना ही है परंतु हे दीनदयालु ! मैंने यह कर्म नहीं किया है । मुझ पर राजा की, सिपाहियों की, वजीर की कड़ी नजर है किंतु गुरुदेव ! तुम्हारी तो सदा मीठी नजर रहती है ।’

व्यापारी ने सच्चे हृदय से अपने सद्गुरु को पुकारा । नानकजी ४ पैसे ज्यों दायीं हथेली पर रखते हैं त्यों जो शक्कर कम थी वह पूरी हो जाती है । वजीर, तौलनेवाले तथा राजा चकित हैं । पलड़ा बदला गया । जब दायें पलड़े पर शक्कर का थैला था वह उठाकर बायें पलड़े में रखते हैं तो नानकजी भी अपने दायें पलड़े (हथेली) से पैसे उठाकर बायें पलड़े (हथेली) में रखते हैं और वहाँ शक्कर पूरी हुई जा रही है । ऐसा कई बार होने पर ‘खुदा की कोई लीला है, नियति है’, ऐसा समझकर राजा ने उस दुकानदार को छोड़ दिया ।

बाला, मरदाना ने सत्संग के बाद नानकजी से पूछा : ‘‘गुरुदेव ! आप पैसे छूते नहीं हैं

फिर आज क्यों पैसे उठाकर हथेली बदलते जा रहे थे ?’’

नानकजी बोले : ‘‘बाला और मरदाना ! मेरा वह सोभसिंह जो था, उसके ऊपर आपत्ति आयी थी । वह था बेगुनाह । अगर गुनहगार भी होता और सच्चे हृदय से पुकारता तब भी मुझे ऐसा कुछ करना ही पड़ता क्योंकि वह मेरा हो चुका है, मैं उसका हूँ । अब मैं उन दिनों का इंतजार करता हूँ कि वह मुझसे दूर नहीं, मैं उससे दूर नहीं, ऐसे सत् अकाल पुरुष को वह पा ले । जब तक वह काल में है तब तक प्रतीति में उसकी सत्-बुद्धि होती है, उसको अपमान सच्चा लगेगा, दुःखी होगा । मान सच्चा लगेगा, सुखी होगा, आसक्त होगा । मैं चाहता हूँ कि उसकी रक्षा करते-करते उसको सुख-दुःख दोनों से पार करके मैं अपने स्वरूप का उसको दान कर दूँ । यह तो मैंने कुछ नहीं उसकी सेवा की, मैं तो अपने-आपको दे डालने की सेवा का भी इंतजार करता हूँ ।’’

शिष्य जब जान जाता है कि गुरु लोग इतने उदार होते हैं, इतना देना चाहते हैं, शिष्य का हृदय और भी भावना से, गुरु के सत्संग से पावन होता है । साधक की अनुभूतियाँ, साधक की श्रद्धा, तत्परता और साधक की फिसलाहट, साधक का प्रेम और साधक की पुकार गुरुदेव जानते हैं ।