Rishi Prasad- A Spiritual Monthly Publication of Sant Sri Asharam Ji Ashram

ज्ञान व अज्ञान का सिद्धकर्ता कौन?

पराशरजी अपने शिष्य मैत्रेय को स्वरूप का बोध कराते हुए कहते हैं : ‘‘हे मैत्रेय ! जो पदार्थ किसी काल में हो और किसी काल में न हो, किसी देश में हो और किसीमें न हो, किसी वस्तु में हो और किसी वस्तु में न हो वह मिथ्या होता है तथा जो सर्व देश में, सर्व काल में, सर्व वस्तु में हो वह सत्य होता है । जैसे रस्सी में जिस समय सर्प की प्रतीति होती है उस समय दंड की प्रतीति नहीं होती और जब दंड की प्रतीति होती है तब सर्प, माला आदि की प्रतीति नहीं होती । परंतु रस्सी का अभाव किसी भी समय में नहीं होता वरन् ‘इदं’ रूप रस्सी ही सर्र्प आदि में व्यापक है । वैसे ही भूषण तो भिन्न-भिन्न हैं परंतु कल्पित भूषणों को सिद्ध करनेवाले सुवर्ण का भूषणों में अभाव नहीं होता ।

इसीलिए हे शिष्य ! जो कल्पित तथा व्यभिचारी (बदलनेवाली) जाग्रत आदि अवस्थाओं तथा सत्य-असत्य सर्व पदार्थों का सिद्धकर्ता परमात्मा है, उस महाकाश से अभिन्न घटाकाश की तरह सर्वत्र अव्यभिचारी (अबदल) जो आत्मवस्तु है, वही तुम्हारा स्वरूप है ।

जो प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से जानने में नहीं आता किंतु जिससे प्रत्यक्ष आदि प्रमाण सिद्ध होते हैं और प्रमाता-प्रमाण-प्रमेय, ज्ञाता-ज्ञान-ज्ञेय, द्रष्टा-दर्शन-दृश्य इत्यादि त्रिपुटी जिसकी सत्तामात्र से सिद्ध होती है, वही चैतन्य तुम्हारा स्वरूप है । जो प्रत्यक्ष आदि षट् प्रमाणों सेजानने में आता है वह माया, तत्कार्य जगत का रूप है, तुम्हारा रूप नहीं । सर्व जगत का उपादान कारण अज्ञान तथा सुषुप्तिकाल का आवृत सुख, सुषुप्ति में जिसकी सत्ता से सिद्ध होता है तथा जाग्रत में भी भ्रम-अभ्रम, भूल-अभूल, स्मरण-अस्मरण रूप ज्ञान-अज्ञान जिससे सिद्ध होता है, वही तुम्हारा स्वरूप है ।’’ (आध्यात्मिक विष्णु पुराण से)