Rishi Prasad- A Spiritual Monthly Publication of Sant Sri Asharam Ji Ashram

अद्वय आनंद के दाता : सद्गुरु

जगदीश्वर व जगत, ब्रह्म व जीव एक-दूसरे से भिन्न नहीं हैं, दोनों एकरूप हैं - ऐसी अनुभूति करानेवाले गुरुदेव की वंदना करते हुए श्रेष्ठ गुरुभक्त एकनाथजी महाराज कहते हैं : ‘‘सद्गुरु आत्मानंद व आत्मज्ञानरूपी वज्र का qपजड़ा हैं, जिसके आधार से इस संसार-सागर को तैरकर जाने का साधनमार्ग सुखकारी हो जाता है । सद्गुरु द्वारा मस्तक पर हाथ रखा जाने से साधक के अहंकार का नाश हो उसे ‘मैं वह ब्रह्म हूँ’- यह भाव प्राप्त हो जाता है तथा वह अब तक अप्राप्त अद्वय आनंद को अनुभव कर लेता है ।

गुरुदेव की शरण में स्थित होने से, ज्ञान के योग से शिष्य के मन में स्थित द्वैतभाव अर्थात् ‘मैं’ और ‘तू’ भिन्न-भिन्न हैं, नष्ट हो जाता है । गुरु जनार्दन स्वामी को जीव-ब्रह्म का एकत्व-भाव प्रिय है । मुझको गुरु जनार्दन प्रिय हैं । अद्वैत भाव की दृष्टि से हम दोनों एकस्वरूप हैं, यद्यपि हमारे नाम जनार्दन और एकनाथ भिन्न हैं । शिष्य के सब कुछ का गुरु में एकात्मरूप हो जाने की अनुभूति का नाम ‘अनन्य शरण’ भाव है । गुरुदेव मेरा मन हैं, मेरे नयन हैं, मेरा वदन उनके रूप में बोलता है । वस्तुतः वक्ता (मैं) और वचन (मेरा कथन) दोनों श्रीगुरुदेव ही हैं । गुरुदेव गति की गति (सद्गति की सद्गति, मुक्ति की मुक्ति) हैं तथा मति की मति हैं । वे प्रेरणा को प्रेरणा प्राप्त कराते हैं । गुरुदेव ही समस्त व्युत्पत्ति हैं, जो अपने अंगरूप में समस्त लोक ही बन गये हैं । 

गुरुदेव ही सब कुछ करने तथा करानेवाले हैं । वे जो भी कर रहे हैं, करा रहे हैं वह मेरे माध्यम से प्रकट हो रहा है । वे कुछ न करनेवाले अकर्ता हैं, फिर भी वस्तुतः मेरे द्वारा सब कुछ करा रहे हैं ।’’     (‘भावार्थ रामायण’ से)