(पूज्य बापूजी का सत्संग-प्रसाद)
लालजी महाराज ने एक बाई की बात बतायी कि हमारे यहाँ एक माई थी । पति मर गये थे, विधवा थी । गाँव के सभी लोगों से कहती : ‘‘कोई कामकाज है तो बोलो !’’
कोई कहता : ‘‘सब्जी ले आओ ।’’ तो लाकर दे देती । जितने पैसे बचते उतने वापस... !
गाँव की किसी बाई ने कहा : ‘‘यह चीज तो अच्छी नहीं है ।’’ तो वह कहती : ‘‘कोई बात नहीं, लाओ, वापस देकर आती हूँ । दुकानवाले को बोलकर आयी हूँ कि अच्छी नहीं लगेगी तो वापस लाऊँगी ।’’ वह चीज वापस करके आती । गाँवभर में किसीके भी यहाँ कोई भी काम हो तो कर आती । काम करावें तो सभी लोग बोलते : ‘इधर ही खा ले रोटी, इधर ही खा ले ।’ इस तरह वह जीती थी ।
जब उसके मरने के दिन आये तो लोगों ने पूछा : ‘‘तुम्हारे लिए हम क्या करें ? श्राद्ध करें तुम्हारा ?’’ तो उसने कहा : ‘‘अरे नहीं-नहीं, कोई जरूरत नहीं है । सब रामस्वरूप हैं । राम की सृष्टि में राम की तो सेवा की है । मैं तो राम में जाऊँगी । मेरा श्राद्ध क्या करना !’’
बड़े आनंद में रहती थी, बड़ी सच्ची माई थी । उस माई की लालजी महाराज के हृदय में तो जगह हुई, मैंने सुना तो मुझे भी लगा कि वह आज होती तो हम लोग भी दर्शन करते ।
तो दूसरों की सेवा में प्रभु की सेवा देखो लेकिन केवल उनमें ही प्रभु दिखे ऐसा नहीं, अपनेसहित सबमें प्रभु दिखे । जहाँ-जहाँ तुम्हारा मन और बुद्धि जाय वहाँ-वहाँ नाम-रूप सबको माया समझकर हटा दो तो उनकी गहराई में जो है वह चैतन्य है ।