बहुत समय पहले रायगढ़ नामक नगर में राजा दीनदयाल सिंह राज्य करते थे । उनके भतीजे का नाम था अंगदसिंह । वह वास्तव में बालिपुत्र अंगद की तरह वीर, निडर और भक्त युवक था ।
एक बार किसी मुसलमान सूबेदार ने रायगढ़ पर चढ़ाई कर दी । दीनदयाल सिंह की सेना छोटी थी । वे घबरा गये और सोच में पड़ गये कि अब रक्षा हेतु क्या उपाय किया जाय ? उनकी घबराहट देखकर अंगदसिंह ने उनकी चिंता का कारण पूछा । दीनदयाल बोले : ‘‘बेटा ! हमारे पास इतनी सेना नहीं है कि हम उनका मुकाबला कर सकें ।’’
अंगदसिंह ने कहा : ‘‘चाचाजी ! युद्ध में विजय सेना के कम या ज्यादा होने से नहीं होती । इतिहास साक्षी है कई बार मुट्ठीभर वीरों ने दुश्मन की विशाल सेना को पीठ दिखाकर भागने पर मजबूर किया है । आप आज्ञा दें तो मैं सेना को लेकर युद्ध करने जाता हूँ और देखता हूँ कि दुश्मन कितना वीर है ।’’
‘‘बेटा ! तेरा साहस बता रहा है कि विजय तेरी ही होगी । जा अंगद ! दुश्मन के दाँत खट्टे करके आ ।’’ दोनों सेनाओं में घमासान युद्ध हुआ । अंगदसिंह के शौर्य के आगे शत्रुओं के हौसले पस्त हो गये । अंगदसिंह और सूबेदार में बहुत देर तक युद्ध चलता रहा । अंत में सूबेदार का मस्तक जमीन पर लुढ़क गया । अंगदसिंह ने उसका मुकुट उतार लिया और जयघोष के साथ रायगढ़ वापस लौट आया ।
सूबेदार के मुकुट में बहुमूल्य सुंदर रत्न जड़े हुए थे । अंगदसिंह ने उसमें से एक हीरा निकाल लिया और उसे भगवान जगन्नाथजी को चढ़ाने का संकल्प किया । शेष रत्नोंसहित मुकुट राजा को भेंट कर दिया । ईष्र्यावश किसीने राजा के कान भर दिये कि सबसे कीमती हीरा तो अंगदसिंह ने निकाल लिया है । राजा ने अंगदसिंह को बुलाकर हीरा माँगा तो उसने राजा को सच्चाई बता दी कि ‘‘मैंने इस हीरे को भगवान जगन्नाथजी के मंदिर में चढ़ाने का संकल्प किया है । ऐसे पवित्र संकल्प को त्याग देना ब‹‹‹ड़े पाप की बात होगी । अतः आप उस हीरे को पाने का आग्रह न करें ।’’
पर राजा दीनदयाल सिंह संसारी व्यक्ति थे । धर्म-कर्म में उनको विश्वास नहीं था और भगवान की पूजा वे केवल लोगों को दिखाने के लिए करते थे । ऐसे बहुमूल्य हीरे को मंदिर में चढ़ाने की बात उनको अच्छी नहीं लगी । वे अंगदसिंह पर हीरा देने के लिए दबाव डालने लगे लेकिन अंगदसिंह ने स्पष्ट इनकार कर दिया ।
राजा ने देखा कि इस पराक्रमी और साहसी युवक से झगड़ा करके हीरा लेना सम्भव नहीं है । उन्होंने लालच और धमकी देकर अंगदसिंह के रसोइये को अपने साथ मिला लिया और एक दिन अंगदसिंह के भोजन में विष मिलवा दिया । अंगदसिंह ने अपने नियमानुसार भगवान को भोग लगाया । रसोइये को अपनी करनी पर पछतावा होने लगा । विश्वासघात का खयाल करके उसके हृदय में तीव्र अग्नि जलने लगी । जैसे ही अंगदसिंह ने पहला ग्रास मुँह में डालने को उठाया कि उसने अंगदसिंह का हाथ रोककर सारी बात बता दी । अंगदसिंह बोला : ‘‘अब तो मैं भगवान को इस भोजन का भोग लगा चुका हूँ । अतः इस प्रसादरूप भोजन का मैं त्याग नहीं कर सकता ।’’
अंगदसिंह ने पूरा भोजन खत्म कर दिया । उसके अटल विश्वास का ऐसा परिणाम निकला कि विष का उस पर कोई प्रभाव न पड़ा । पर राजा का दुष्ट व्यवहार, कपटनीति और स्वार्थबुद्धि देखकर अंगदसिंह को बड़ा खेद हुआ । उसने निश्चय किया कि ‘अब मैं यहाँ नहीं रहूँगा । सबसे पहले जगन्नाथपुरी जाकर हीरा भगवान को चढ़ा दूँगा ।’ वह महल से निकल पड़ा । यह समाचार राजा तक पहुँचा । उसने सौ सिपाहियों को भेजा कि ‘‘कैसे भी अंगदसिंह से वह हीरा छीनकर लाओ ।’’ अंगदसिंह रायगढ़ से पाँच-सात मील दूर एक तालाब के किनारे शांत भाव से भगवान की पूजा कर रहा था । सिपाहियों ने उसे घेर लिया और कहा : ‘‘हमें हीरा दे दीजिये, नहीं तो हम आपको मारकर उसे ले जायेंगे ।’’
अंगदसिंह सोचने लगा, ‘अब क्या करूँ ? मैं तो निःशस्त्र हूँ और सिपाहियों से घिरा हूँ ।’ उसने आँखें मूँद लीं, तन-मन-बुद्धि के प्रयासों को विराम दे दिया और अंतर्यामी की शरण हो गया : ‘शस्त्र नहीं तो क्या, शस्त्र चलाने की सत्ता जिससे आती है वह परम समर्थ सत्ता तो मेरे साथ है । अब वही मेरा संकल्प पूरा करे । महान असमंजस की इन घड़ियों में वही अंतर्यामी मुझे मार्ग दिखाये ।’
सिपाहियों ने देखा कि कुछ ही क्षणों में अंगदसिंह के मुख पर एक स्वर्णिम आभा देदीप्यमान होने लगी । अंगदसिंह ने धीरे से आँखें खोलीं और ‘एतत् ईश्वरार्पणमस्तु...’ कहकर हीरे को गहरे तालाब में फेंक दिया । सिपाही यह देखकर अवाक् रह गये और अब हीरे को पाने का कोई उपाय न देखकर वापस लौट गये । लोभ में अंधा राजा बहुत-से सिपाहियों को लेकर उस तालाब पर जा पहुँचा । तालाब में से हीरे को निकालने के उसने बहुत-से उपाय किये पर वह हीरा उसके हाथ न आया ।
अंगदसिंह चलते-चलते कई दिनों के बाद जगन्नाथजी के मंदिर पहुँचा तो भगवान के गले के रत्नहार में वही हीरा चमक रहा था । भगवान की सर्वसमर्थता, परम सुहृदता देख उसकी आँखों से प्रेमाश्रुओं की सरिताएँ बह चलीं और वह भगवान को बारम्बार प्रणाम करने लगा । जब वह कुछ बोलने का सामथ्र्य जुटा पाया तो उसने कहा : ‘‘हे परम प्रेरक ! हे सर्वसमर्थ ! हे सर्वरक्षक ! आपने कदम-कदम पर मेरी रक्षा की । पहले जहर से और फिर युक्ति देकर सैनिकों से बचाया । संसार की असलियत दिखाकर वैराग्य दिलाया और मुझे अपने पास बुलाया । मेरे द्वारा मन-ही-मन किये गये संकल्प को इस अद्भुत ढंग से पूरा कर मेरी लाज बचायी । अब मैं सर्व प्राणियों के परम सुहृद आपके अलावा कहीं मन न लगाकर आपको ही रिझाऊँगा, आपको ही पाऊँगा ।’’
अंगदसिंह ने अपना शेष जीवन भगवद्भक्ति एवं भगवत्शरणागति में लगाकर कृतकृत्य किया ।