(आत्मनिष्ठ पूज्य बापूजी का सत्संग-प्रसाद)
मुझको साधनाकाल में ध्यान की गहराइयों में आनंद तो आता था और उसमें टिकने का भी सब कुछ हो गया था फिर भी रहता था कि गुरुजी जैसे तो बने न !
मृत गाय दिया जीवन दाना,
तब से लोगों ने पहचाना ।
यह सब ठीक है लेकिन मन में रहता था कि अब भी कुछ पूर्णता होनी चाहिए । ४० दिन में काम तो बन गया लेकिन पूर्णता की अब भी थोड़ी प्यास बनी रही । तो एक सुबह को लगभग साढ़े चार बजे का समय होगा । गुरुजी प्रभात को उठ जाते । कमरे में पर्दा लगा रहता । अंदर गुरुजी अपना आसन करते रहते और बाहर हम और दूसरे जो भी दो-चार खास गुरुजी के कृपापात्र होते, वे शास्त्र पढ़ते । सुबह का सत्संग चल रहा था । गुरु तो वही हैं जो शिष्य के हृदय में अधिष्ठानरूप में बैठे हैं और सब जगह हैं । आपके मन में, बुद्धि में क्या आता है उसकी गहराई में कोई है चैतन्य, वह जानता है और गुरुजी तो उसमें स्थित हैं । तो सुबह-सुबह गुरुजी ने क्या कृपा बरसायी, पर्दा हटा के मेरी तरफ देखा फिर इधर-उधर नजर डालकर कहा : ‘‘कुछ लोग सोचते हैं कि हैं तो हम ब्रह्म, असत्त्वापादक आवरण, अभानापादक आवरण यह सब हट गया लेकिन हम साँर्इंजी जैसे बन जायें ।’’
गुरुजी बड़े सहज थे । गुरुजी के साथ बिताया हुआ समय, उस समय इतना महत्त्वपूर्ण नहीं लगता था जितना अभी उनकी यादें रसमय हो जाती हैं । तो गुरुजी ने सिर पर गीता उठायी और कहा : ‘‘कुछ लोग सोचते हैं कि हमें अभी ऐसा होना चाहिए, अभी और थोड़ा... । अरे ! जो लीलाशाह है वह तू है, जो तू है वह लीलाशाह है । गीता सिर पर उठा के बोलता हूँ, अभी तो मान ले !’’
उन शब्दों में क्या कृपा थी ! क्या संकल्प था ! वह खटका निकल गया । फिर भी एक खटका बना रहा कि जब हम वे ही हैं तो बैठे रहें समाधि में । शिवजी इतने साल बैठे रहते हैं, शुकदेवजी महाराज इतने साल बैठते हैं । अब मैं रोज-रोज सत्संग करूँ, इधर जाऊँ, उधर जाऊँ... इससे तो हिमालय में जाकर समाधि लगाऊँ । तो फिर गुरुजी को परिश्रम दिया हमने ।
गुरुजी सत्संग करते-करते मुझ पर नजर डालते हुए कहते : ‘‘खलक जी खिज़मत खां न भायां बंदगी बेहतर.’’ खलक की माने जनता की सत्संग द्वारा जो खिज़मत (सेवा) होती है, उससे बढ़कर बंदगी नहीं है, समाधि नहीं है - ऐसा गुरुजी बोलते थे और मैं समझ लेता था कि यह इधर का संकेत है ।
मन है न, किसीको महत्त्व दे देता है तो बार-बार उधर को ही जाता है । जैसे सिगरेटबाज ने सिगरेट को महत्त्व दे दिया तो फिर थोड़ी देर में उठेगा, फूँकेगा । सुन तो रहे हैं लेकिन उठते ही वही करेंगे जिसको महत्त्व दिया है । ऐसे ही हमारा मन घूम-फिर के फिर वहीं... मोक्ष कुटिया भी ऐसी बनायी कि सत्संग के अलावा के समय में ध्यान-सुमिरन भी कर सकें । फिर एक छोटी-सी पुस्तक हाथ में आयी - ‘ब्रह्म बावनी कथा’, गुजराती में थी । उसमें लिखा था : थातुं कोई नुं ध्यान हशे तो तेनुं प्रारब्ध तेवुं हशे. मुझे संकेत मिल गया कि किसीकी ध्यान-समाधि लगती है तो उसका प्रारब्ध निवृत्तिप्रधान है और तुम्हारे को समय नहीं मिलता और सत्संग में गुरुजी का संकेत आ गया कि ऐसे करो तो तुम्हारा प्रारब्ध ऐसा है । इस तरह वह खटका भी निकल गया । तो अब एकांत में ध्यान में हैं, तब भी वही शांति-आनंद और भीड़ में आते हैं तब भी वही मस्ती ! इसको भगवान श्रीकृष्ण ने बहुत ऊँची अवस्था कहा - ‘अविकम्प योग’ ! समाधि में हैं तो हम अविकम्प हैं लेकिन उठे, इससे मिले - उससे मिले तो आनंद-शांति खो गयी तो वह योगाभ्यासी है, ध्यानयोगी है लेकिन तत्त्वज्ञानी तो अविकम्प योग में स्थित है ।
उठत बैठत ओई उटाने,
कहत कबीर हम उसी ठिकाने ।
समाधि में वही सुख और लेने-देने में भी वही सुख, वही शांति, वही आनंद... इसको बोलते हैं जीवन्मुक्त ! तो बहुत-बहुत बड़ी, बहुत-बहुत... जहाँ बहुत का भी अंत हो जाय, बड़ी का भी अंत हो जाय ऐसी स्थिति है यह । तो वह स्थिति जो एक आदमी पा सकता है, उसे सभी पा सकते हैं, केवल उधर की भूख हो ।