भोजन से दिव्यता कैसे बढ़ायें ?
आहार के लिए यह ज्ञान अत्यावश्यक है कि क्या खायें, कब खायें, कैसे खायें और क्यों खायें ? इन चारों प्रश्नों के उत्तर स्मरण रखने चाहिए ।
‘‘क्या खायें ?’’
‘‘सतोगुणी, अहिंसात्मक विधि से प्राप्त खाद्य पदार्थों का ही सेवन करो ।’’
‘‘कब खायें ?’’
‘‘अच्छी तरह भूख लगे तभी खाओ ।’’
‘‘कैसे खायें ?’’
‘‘दाँतों से खूब चबाकर, मन लगा के, ईश्वर का दिया हुआ प्रसाद समझ के,प्रेमपूर्वक शांत चित्त से खाओ ।’’
‘‘किसलिए खायें ?’’
‘‘शरीर में शक्ति बनी रहे, जिससे कि सेवा हो सके इसलिए खाओ और दूसरों की प्रसन्नता के लिए खाओ परंतु अधिक अमर्यादित विधि से न खाओ । किसीको रुलाकर न खाओ । अशांतचित्त होकर भीतर-ही-भीतर स्वयं
रोते हुए भी न खाओ । किसी भूखे के सामने उसे बिना दिये भी न खाओ । शुद्ध, एकांत स्थान में भगवान का स्मरण करते हुए भोजन करो । अन्याय से, हिंसात्मक विधि से उपार्जित धान्य भी न लो । जहाँ पर धर्मात्मा प्रेमी भक्त, सज्जन न मिलें वहाँ प्राणरक्षामात्र के लिए आहार करो ।’’
परिणामदर्शी ज्ञानियों का कथन है कि प्राणांतकाल में जिस प्रकार का अन्न, जिस कुल का, जिस प्रकार की प्रकृतिवाले दाता का अन्न उदर में रहता है, उसी गुण, धर्म, स्वभाववाले कुल में उस प्राणी का जन्म होता है ।
जिस प्रकार शरीरशुद्धि हेतु सदाचार, धनशुद्धि हेतु दान, मनःशुद्धि के लिए ईश्वर-स्मरण आवश्यक है, उसी प्रकार तन-मन-धन की शुद्धि के लिए व्रत-उपवास भी आवश्यक है और व्रत-उपवास की यथोचित जानकारी भी आवश्यक है ।