प्रतिजैविक औषध (एंटीबायोटिक) और पेनकिलर, क्या-क्या खाने के बाद भी लोग तंदुरुस्त दिखाई नहीं देते । क्या-क्या मनौतियों के बाद भी लोग निश्चिंत नहीं दिखाई देते । कितने-कितने उपायों के बाद भी लोग पूरे आनंदित नहीं दिखाई देते । क्या-क्या देश-विदेश की यात्राएँ और आविष्कार करने के बाद भी लोग सुखी, स्वस्थ और सम्मानित नहीं दिखाई देते, निश्चिंत नहीं दिखाई देते । ऐसा नहीं कि अमुक वर्ग अभागा है इसलिए वह दुःखी है, प्रायः सभी वर्ग के लोगों के साथ यह समस्या है । किसी भी वर्ग के लोगों को देखो तो उनके स्वास्थ्य का, मानसिकता का, बौद्धिकता का ठिकाना नहीं है । एक-दूसरे पर दोषारोपण करना, अपने को, दूसरों को या भाग्य को कोसना । दीनता-हीनतावाली मान्यता कि ‘भगवान दया करेंगे, भविष्य में कोई देव, कोई अल्लाह, कोई गॉड कृपा करेगा...’ उसी-उसीमें लाचारी-मोहताजी के साथ मानव घसीटा जा रहा है ।
इन्द्रियों का स्वामी मन है और मन का स्वामी प्राण है । प्राण तालबद्ध न होने के कारण मन तालबद्ध नहीं, इसलिए इन्द्रियों पर मन का शासन ठीक नहीं चलता । आँख ने दिखा दी कोई सुंदरी या सुंदरा, इन्द्रियाँ उसकी ओर आकर्षित हो गयीं, मन सहमत हो गया और बुद्धि को घसीट लिया । अपनी पत्नी होते हुए अथवा मर्यादा के खिलाफ होने पर भी स्त्री-पुरुष का आकर्षण नींद हराम कर देता है, स्वास्थ्य खराब कर देता है । औषधियाँ लेते हैं, इंजेक्शन भोंकवाते हैं, शल्यक्रिया (ऑपरेशन) भी कराते हैं, आयुर्वेदिक उपचार भी करते हैं, फिर भी शरीर का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता । थोड़े दिन ठीक रहा-न रहा फिर बेठीक हो जाता है । आज के मानव की यही समस्या है । वास्तव में स्वास्थ्य का, सुख का, आनंद का, माधुर्य का और सारी समस्याओं के समाधान का स्रोत जो है, उसको मानव भूलता चला गया ।
कूड़ा-करकट है तो उस पर चादर डाल दी, बोले : ‘अब ठीक हो गया ।’ समय पाकर कूड़ा-करकट चादर को भी कूड़ा-करकट बना देगा । फिर दूसरी चादर... तीसरी चादर... ये-वो । ऐसे ही ऊपर के उपचार हैं । उनसे रोग, दीनता-हीनता, रिएक्शन भविष्य की तकलीफें बढ़ती हैं । जरा-सी पीड़ा हुई तो पेनकिलर ले ली । पीड़ा तो दब गयी लेकिन वह पेनकिलर और भी मुसीबत ले आयेगी । ऐसे उपाय करते हैं कि ‘ज्यों-ज्यों इलाज किया, त्यों-त्यों मर्ज बढ़ता गया ।’ इसलिए तो जीवन नहीं है ! सही उपाय है रोग के मूल को समझना और सही उपचार वह है जो रोग के मूल को उखाड़ के आपको स्वास्थ्य दे।
विषय पाँच हैं - शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध । गाना-बजाना और अपनी खुशामद सुनना यह शब्द-विकार है । पति-पत्नी का स्पर्श-विकार है । जीभ को मजा आये केवल इसलिए ऐसे व्यंजन खाना जिनसे बीमारियाँ होती हैं, यह भी एक विकार है । इन पाँचों विकारों के मूल में देखो तो केवल दो ही कारण हैं - राग और द्वेष । राग से खाया तो बीमार पड़ोगे । राग से पत्नी के साथ व्यवहार किया तो जल्दी बूढ़े बनोगे । राग से किसीसे जुड़े तो ममता हो जायेगी । द्वेष से किसीके साथ अन्यायपूर्ण व्यवहार करोगे तो भी फँसोगे । इस राग-द्वेष को शिथिल करना, इस पर नियंत्रण पाना अथवा राग-द्वेष को बाधित करना यह बहुत ऊँचा साधन है । इससे शारीरिक स्वास्थ्य हँसते-खेलते मिलेगा, मानसिक प्रसन्नता और संतुष्टि अपने घर की चीज हो जायेगी तथा बौद्धिक विकास कल्पनातीत होगा । बड़े-बड़े बुद्धिमान लोग संतों से मार्गदर्शन लेते हैं । संत डॉक्टरी नहीं पढ़े हैं लेकिन डॉक्टर उनसे मार्गदर्शन लेते हैं । संत नेतागिरी नहीं जानते पर नेता आशीर्वाद लेते हैं । तो आखिर उन महापुरुषों के पास ऐसी कौन-सी चीज है ?
बोले : ‘भगवान ।’
अगर उनके पास भगवान हैं तो आपके पास क्या है ? शैतान है क्या ? वैसे-का-वैसा भगवान तो आपके पास भी है लेकिन मनमुखता एक शैतानियत है । जो गुरुदेव बता दें उसी रास्ते चलें तो कहाँ-से-कहाँ पहुँच जायेंगे । उस आत्मदेव में विश्रांति पानेवाली साधना सीख लो तो रोग यूँ मिटते हैं, चिंताएँ यूँ जाती हैं, बेवकूफी यूँ भागती है और भगवद्-लाभ सहज में होता है ! दीक्षा के समय सभीको सिखाया जाता है और कहा जाता है कि ‘श्वासोच्छ्वास में पचास की गिनती हररोज करनी है, जिससे मन नियंत्रित हो, प्राण तालबद्ध हों और आयु-आरोग्य पुष्ट रहे ।’ जो लोग आज्ञा का पालन करके करते होंगे उनको तो लाभ होता होगा लेकिन इस लाभ की महिमा न जानने के कारण खानापूर्ति कर देते होंगे तो खानापूर्ति जैसा लाभ होता होगा । इसमें मन की सजगता, प्राणों की तालबद्धता और आपकी वेदांतिक समझ - ये तीनों चीजें जरूरी हैं ।
‘अजपा गायत्री’ श्वासोच्छ्वास की साधना है । इससे आत्मवैभव जगता है । आत्मा ज्ञानस्वरूप है और बड़ा संवेदनशील तत्त्व है । जैसे माँ की जेर के साथ बच्चे की नाभि जोड़ना कितना भारी काम है! वह आत्मसत्ता ही तो करती है । माँ के शरीर में दूध बनाना, यह न माँ करती है, न बाप करता है, न बेटा करता है, न चिकित्सक करता है, वही आत्मसत्ता करती है । उस आत्मसत्ता से जुड़े हैं प्राण । प्राणों का संचार अच्छा तो रक्त-संचार भी अच्छा, रक्त-संचार अच्छा तो स्वास्थ्य अच्छा । श्वासोच्छ्वास की साधना करो, श्वास अंदर जाय तो ‘ॐ’, बाहर आये तो गिनती । इससे श्वास तालबद्ध होंगे । श्वास तालबद्ध होंगे तो मन आत्मा के साथ जुड़ेगा, बुद्धि बलवान होगी व मन को नियंत्रण में करेगी, इन्द्रिय-संयम रहेगा और संयम से अंतरात्मा का सुख भी मिलेगा, मन भी प्रसन्न रहेगा, बुद्धि में भी ज्ञान आयेगा और इससे असाध्य रोग भी अपने-आप मिट जाते हैं । (क्रमशः)