यह प्रपंच मिथ्या है । प्रपंच क्यों बोलते हैं ? जैसे भेल-पूड़ी में सब एकत्र कर देते हैं न, ऐसे पाँच भूतों का आधा-आधा हिस्सा तो अलग रहा, बाकी आधा हिस्सा मिश्रित किया । उसीसे प्रपंच बना । जल में भी पृथ्वी के कण मिल जायेंगे, वायु में भी मिल जायेंगे, आकाश में भी मिल जायेंगे । और पृथ्वी में भी आकाश, वायु सब घुसा हुआ है । पाँचों के मिश्रण से 25 हो गये ।
मिथ्या परपंच देखि दुख जिन आनि जिय ।
देवन को देव तू तो सब सुखरासी है ।।
(विचारसागर : 6.12)
प्रपंच को मिथ्या देखकर दुःख मत आने दे दिल में । ‘यह देवता है कि नहीं’ इसको प्रमाणपत्र देनेवाला तू है । भगवान का भगवान-पना भी सिद्ध तेरे से होता है । तू भगवान का भी भगवान है, गुरु का भी गुरु है, ऐसा तेरा आत्मा है । यह गुरु का ज्ञान जितना पच जाय उतना ही नम्र हो जायेगा, उतना ही गुरु का प्रिय बन जायेगा ।
आपनै अज्ञान तैं जगत सब तू ही रचै ।
अपने-आपका (आत्मा का) ज्ञान नहीं है न ! जैसे रात को नींद में अपने-आपको भूल जाते हैं और स्वप्न का जगत बना लेते हैं और उसीमें सिकुड़ते हैं : ‘हे साहब ! हे फलाने साहब !...’ आँख खोलोगे तो सब गायब हो जायेंगे । जो बड़े-बड़े खूँखार हैं, बड़ी-बड़ी हस्तियाँ हैं सपनेवाली, तुम्हारे ही अज्ञान से उनका रुतबा है । तुम आँख खोल दो तो उनका रुतबा पूरा हो जायेगा । ऐसे ही जगत में तुम अपनी ज्ञान की आँख खोलो तो रुतबा पूरा हो जाय सबका । ऐसा है वह तुम्हारा आत्मदेव !
‘इधर जाऊँ, उधर जाऊँ, उधर जाऊँ...’ ऐसा जो सोचेगा वह भटकेगा इस जगतरूपी सपने में ।
आपनै अज्ञान तैं जगत सब तू ही रचै ।
सर्व को संहार करैं आप अविनाशी है ।।
(विचारसागर : 6.12)
आत्मा माने ऐसी कोई चीज नहीं, जहाँ से ‘मैं, मैं’ स्फुरित होता है वही अपना चैतन्य ! उस आत्मदेव में निःशंक होकर समझ में आ जाय (उसे जान ले) । उसके लिए मेहनत नहीं है; मेहनत का विभाग अलग है, वह तपस्या विभाग है ।
दो विभाग - तपस्या और उपासना
एक होता है तपस्या विभाग; उसमें कठिनाई सहने से सिद्धि, शक्ति आती है । दूसरा होता है उपासना विभाग; इष्टदेव में प्रीति, गुरुदेव में प्रीति - यह उपासना है । ‘उप’ माने समीप... इष्ट और सद्गुरु के समीप आने की यह रीत है ।
कर्म-विभाग से वासनाएँ नियंत्रित होती हैं । गलत जगह जा के सुखी होने की आदत पर नियंत्रण करती है उपासना, धर्म । तो एक है मनमुखी कर्म, जैसा मन में आये ऐसा करो... तो वह तो और गिर रहा है गड्ढे में । अच्छे कर्म से हृदय पवित्र होता है और पवित्र हृदय में संकल्पबल आता है । कष्ट सहने से अंतःकरण की शुद्धि होती है । पीडोद्भवति सिद्धयः । पीड़ा सहने से सिद्धि प्राप्त होती है ।
उपासना में एकाग्रता का अभ्यास किया जाता है, जिससे बल आ जाता है । इष्ट के, गुरु के सिद्धांत के समीप हो जाते हैं । इष्ट के लोक में भी जा सकते हैं मरने के बाद । उपासना में इतनी ताकत है कि कोई इष्टदेव है, उसका लोक है तो ठीक, और नहीं भी है तो आपकी उपासना से आपके लिए बन जायेगा । सपने में बन जाता है न सब, ऐसे ही तुम्हारे लिए इष्टलोक बन जायेगा ।
इतना आसान है आत्मसाक्षात्कार !
सारे देवताओं का, सारे उपास्यों का, उपासकों का मूल तत्त्व अपना आत्मदेव है । तपस्या, धर्म-परायणता अंतःकरण को शुद्ध करती है । उपासना अंतःकरण को एकाग्र करती है । जितना उसे एकाग्र करते हैं, उतनी शक्तियाँ भी आती हैं । कोई सोने की लंका भी पा सकता है उपासना के बल से । लेकिन मूल तत्त्व जो है सृष्टि का, इष्टदेवता का... अपना मूल तत्त्व... उसका साक्षात्कार नहीं हुआ तो देर-सवेर सब नीचे आ जाते हैं । जैसे कमाई हुई और खर्च हो गया । घाटा हुआ और फिर नफा हुआ तब भर गया । ऐसे ऊपर-नीचे चौदह लोकों में लोग घूमते रहते हैं... उत्थान-पतन, उत्थान-पतन के चक्र में घूमते रहते हैं । तो अब उत्थान-पतन नहीं करना है, जन्म-मरण के चक्र में नहीं आना है ।
जो इष्टदेव की पूजा-अर्चना करता है उसको गुरुदेव मिलते हैं और गुरुदेव भी कई किस्म के होते हैं । उनमें भी तत्त्ववेत्ता, आत्मसाक्षात्कारी गुरु बड़े दुर्लभ होते हैं । वे मिल जायें तो वे संस्कार डालते हैं कि ‘भाई ! तुम आत्मतत्त्व हो ।’ जब तक तत्त्ववेत्ता गुरु नहीं मिले थे तब तक हमको भी पता नहीं था आत्मसाक्षात्कार क्या होता है, तुमको भी पता नहीं था; किसीको भी पता नहीं था ।
तो सृष्टि के मूल तत्त्व का अनुभव करना तो बड़ा आसान है । कर्मी कर्म कर-करके थक जाय, उपासक उपासना कर-करके कई जन्म बिता दे... लेकिन यह तत्त्वज्ञान, आत्मसाक्षात्कार तो एक हफ्ते में भी हो जाय, इतना आसान भी है ! राजा परीक्षित को एक हफ्ते में हो गया था । उन्हें शुकदेवजी का उपदेश मिला और कैसी तड़प थी कि अन्न-जल छोड़कर सत्संग में ही बैठे रहते, खाने-पीने का भी खयाल नहीं रहता था क्योंकि मौत सामने है । एक शब्द भी सत्संग का चूकते नहीं थे । आखिर में गुरु ने कहा : ‘वह (आत्मा-परमात्मा) तू ही है ।’ और उन्हें आत्मसाक्षात्कार हो गया । बहुत ऊँची चीज है । इसकी ऊँचाई के आगे कुछ भी नहीं है ।
कभी न छूटे पिंड दुःखों से
जिसे ब्रह्म का ज्ञान नहीं ।
आत्मा का स्वरूप क्या है ?
आत्मा किसको बोलते हैं ? जहाँ से ‘मैं’ स्फुरित होता है । सभीके हृदय में ‘मैं’, ‘मैं’ होता है । तो इतना व्यापक है यह... यह तो अपने चमड़े के अंदर बोलते हैं इधर-इधर, बाकी केवल इधर नहीं है, सर्वत्र वही है... वृक्षों में यही आत्मदेव रस खींचने की सत्ता देता है । यह जो पक्षियों का किल्लोल हो रहा है, यह भी आत्मा की सत्ता से हो रहा है । इन पेड़-पौधों, पत्थरों में भी वही आत्मचेतना है किंतु उनमें सुषुप्त है । सारा जगत उस आत्मा का ही विवर्त1 है । जैसे सागर की एक भी तरंग सागर से अलग नहीं है, ऐसे ही सृष्टि का एक कण भी आत्मा से अलग नहीं है ।
एक बार उस आत्मा-परमात्मा को जान लो, उसमें 3 मिनट बैठ जाओ, टिक जाओ, गुरु की कृपा से आत्मसाक्षात्कार हो जाय केवल 3 मिनट के लिए तो पार हो गये... फिर गर्भवास नहीं होता, जन्म-मरण नहीं होता ।
1. वस्तु में अपने मूल स्वभाव को छोड़े बिना ही अन्य वस्तु की प्रतीति होना यह ‘विवर्त’ है । सीपी में चाँदी दिखना, रस्सी में साँप दिखना विवर्त है ।