लगभग १६ वर्ष की वय में दशरथनंदन राजकुमार श्रीरामचन्द्रजी अपने पिता से आज्ञा लेकर तीर्थयात्रा करने निकले और सभी तीर्थों के दर्शन एवं दान, तप, ध्यान आदि करते हुए एक वर्ष बाद पुनः अयोध्या लौटे । तब एकांत में श्रीरामजी विचार करते हैं, ‘जितने भी बड़े-बड़े राजा, महाराजा, धनाढ्य और श्रीमंत थे, उनके अवशेषों को गंगा में प्रवाहित कर लोग आँसू गिरा के चले जाते हैं । इस प्रकार इस जगत की वस्तुओं में खेलनेवाले जीवों के सारे अवशेष भी गंगा नदी में बह जाते हैं ।’
श्रीरामचन्द्रजी विवेक-वैराग्य के उपरोक्त विचारों में निमग्न थे, तभी विश्वामित्र मुनि श्रीराम और लक्ष्मण को अपने साथ ले जाने के लिए राजा दशरथ के यहाँ आये । दशरथ की नजरें जैसे ही विश्वामित्र पर प‹डीं, उन्होंने सिंहासन से उतरकर दंडवत् प्रणाम करके महर्षि विश्वामित्र का आदरपूर्वक सत्कार किया तथा उनके आगमन का कारण पूछा । तब विश्वामित्रजी ने दशरथ से अपने यज्ञ की रक्षार्थ राम और लक्ष्मण को अपने साथ भेजने को कहा । महर्षि विश्वामित्र के वचन सुनकर दशरथजी मूच्र्छित जैसे होने लगे । तब वसिष्ठजी ने उनसे कहा :
‘‘राजन् ! आप चिंता न करें । विश्वामित्रजी सुयोग्य एवं सामथ्र्यवान हैं । ये परम तपस्वी हैं । इनसे बड़ा वीर पुरुष तो देवताओं में भी नहीं है । आप निर्भय होकर राम-लक्ष्मण को विश्वामित्रजी के साथ भेज दीजिये ।’’
महर्षि वसिष्ठ के वचन सुनकर राजा दशरथ सहमत हो गये । उन्होंने रामजी को बुलाने के लिए सेवक भेजा । लौटकर सेवक कहता है : ‘‘रामचन्द्रजी तो एकांत कक्ष में बैठे हैं । हास्य-विनोद की वस्तुएँ देने पर वे कहते हैं : ये नश्वर वस्तुएँ लेकर मुझे क्या करना है ? जिस प्रकार एक मृग हरी-भरी घास के आकर्षण में बह जाता है और शिकारी उसे मार डालता है, उसी प्रकार तुम लोग भी इन भोग-पदार्थों में फँस जाते हो और असमय काल के गाल में समा जाते हो । ऐसे भोग-पदार्थों में मुझे समय नष्ट नहीं करना है अपितु मुझे आत्मतत्त्व का अनुसंधान करना है ।’’
तब समस्त साधुगण, ऋषि-मुनि और सभासद कहने लगे : ‘‘सचमुच, कितने विवेकपूर्ण वचन हैं श्रीरामचन्द्रजी के !’’
विश्वामित्रजी ने राजा दशरथ से कहा : ‘‘हे राजन् ! यदि ऐसा है तो श्रीरामजी को हमारे पास लाओ, हम उनका दुःख निवृत्त करेंगे । हम और वसिष्ठादि एक युक्ति से उपदेश करेंगे, उससे उनको आत्मपद की प्राप्ति होगी ।’’
तत्पश्चात् रामचन्द्रजी सभा में बुलाये गये । उन्होंने जगत की नश्वरता का जो वर्णन किया वह ‘श्री योगवासिष्ठ महारामायण’ के ‘वैराग्य प्रकरण’ में वर्णित है ।
दूसरा कोई ग्रंथ आप पूरा न पढ़ सकें तो योगवासिष्ठ का वैराग्य प्रकरण ही पढ़ लेना, ताकि पुनरावृत्ति किस तरह से होती है यह समझ में आ जायेगा । आपके हृदय के द्वार खुलने लगेंगे । यह विचार उदित होगा कि ‘हम क्या कर रहे हैं ?’
योगवासिष्ठ में छः प्रकरण हैं - वैराग्य प्रकरण, मुमुक्षु प्रकरण, उत्पत्ति प्रकरण, स्थिति प्रकरण, उपशम प्रकरण और निर्वाण प्रकरण । इन प्रकरणों में आप जीवन्मुक्त स्थिति तक पहुँच सको ऐसा सुंदर वर्णन है ।
जो मनुष्य एक बार योगवासिष्ठ का पाठ करता है, उसका चित्त शांत होने लगता है । फिर चित्त किधर जाता है इसे देखा जाय तो तुम्हारे संकल्पों-विकल्पों में सहजता से कमी होने लगती है । तुम्हारी आध्यात्मिक शक्तियों का विकास होकर तुम्हारे ऐहिक, सांसारिक कार्य तो आसानी से होने लगेंगे ही, साथ ही जगत के कार्यों में जो सफलता मिलेगी उसका तुम्हें अहं न होगा और न ही उसमें आसक्ति होगी तथा न कभी वस्तुओं का चिंतन करते-करते मृत्यु ही होगी बल्कि तुम्हारे द्वारा अपने स्वरूप का चिंतन होते हुए मृत्यु देह की होगी और तुम देह की मृत्यु के द्रष्टा बनोगे ।
सुकरात को जहर देने का आदेश दिया गया । जहर बनानेवाला जहर पीस रहा है लेकिन सुकरात निqश्चत होकर अपने मित्रों के साथ बातचीत कर रहे हैं । ५ बजते ही जहर पीना है और सुकरात दो मिनट पहले ही जहर देनेवाले से कहते हैं : ‘‘भाई ! समय पूरा हो गया है, तुम देर क्यों कर रहे हो ?’’ तब वह बोला : ‘‘आप भी अजीब इन्सान हैं ! मैं तो चाहता हूँ कि आप जैसे महापुरुष दो साँस और ले लें, इसलिए मैं जानबूझकर थोड़ी देर कर रहा हूँ ।’’
सुकरात कहते हैं : ‘‘तुम जानबूझकर देर करते हो लेकिन दो मिनट अधिक मैंने जी भी लिया तो कौन-सी बड़ी बात हो जायेगी ? मैंने तो जीवन जीकर देख लिया, अब मृत्यु को देखना है । मैं मरनेवाला नहीं हूँ ।’’
जहर का प्याला आया... मित्र और साथी रोने लगे... तो वे महापुरुष समझाते हैं : ‘‘अब रोने का समय नहीं, समझने का समय है । यह जहर शरीर पर प्रभाव करेगा किंतु मुझ पर इसका कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ेगा ।’’
सुकरात पानी की तरह जहर पी गये । तत्पश्चात् वे लेटकर अपने शिष्यों से, भक्तों से कहते हैं : ‘‘जहर का असर अब पैरों से शुरू हुआ है... अब जाँघों तक आ चुका है... अब कमर तक उसका असर आ रहा है... रक्तवाहिनियों ने काम करना बंद कर दिया है... अब हृदय तक आ पहुँचा है... अब मृत्यु यहाँ तक आ गयी है लेकिन मृत्यु इस शरीर को मारती है; मृत्यु जिसको मारती है उसे मैं ठीक तरह से देख रहा हूँ । जो मृत्यु को देखता है उसकी मृत्यु होती ही नहीं, यह पाठ पढ़ाने के लिए मैं तुम्हें सावधान कर रहा हूँ ।’’
इसी प्रकार अपने जीवन में भी एक दिन ऐसा आयेगा । मौत से घबराने की जरूरत नहीं है, डरने की जरूरत नहीं है । ‘मौत किसकी होती है ? किस तरह होती है ?’ उस समय सावधान होकर जो यह निहारता है, जो मृत्यु को देखता है, वह मौत से परे अमर आत्मा को जानकर मुक्त हो जाता है ।
बिल्ली को देखकर दाने चुगता कबूतर आँखें बंद कर लेता है लेकिन ऐसा करने से बिल्ली छोड़ नहीं देती । ऐसे ही जो दुःख, विघ्न और मौत से लापरवाही बरतेगा उसे मौत छोड़ेगी नहीं । मौत का साक्षी होकर मौत से परे अपने अमर आत्मा में जो जाग जाता है, वह धन्य हो जाता है !