Rishi Prasad- A Spiritual Monthly Publication of Sant Sri Asharam Ji Ashram

चातुर्मास्य व्रत की महिमा

(स्कं. पु., ब्रा. चा. मा. : ४.२५)
चतुर्मास में ताँबे के पात्र में भोजन विशेष रूप से त्याज्य है। काँसे के भी बर्तनों का त्याग करके मनुष्य अन्यान्य धातुओं के पात्रों का उपयोग करे। अगर कोई धातुपात्रों का भी त्याग करके पलाशपत्र, मदारपत्र या वटपत्र की पत्तल में भोजन करे तो इसका अनुपम फल बताया गया है। अन्य किसी प्रकार का पात्र न मिलने पर मिट्टी का पात्र ही उत्तम है अथवा स्वयं ही पलाश के पत्ते लाकर उनकी पत्तल बनाये और उससे भोजन-पात्र का कार्य ले। पलाश के पत्तों से बनी पत्तल में किया गया भोजन चान्द्रायण व्रत एवं एकादशी व्रत के समान पुण्य प्रदान करनेवाला माना गया है। इतना ही नहीं, पलाश के पत्तों में किया गया एक-एक बारका भोजन त्रिरात्र व्रत के समान पुण्यदायक और बड़े-बड़े पातकों का नाश करनेवाला बताया गया है।

प्रतिदिन एक समय भोजन करनेवाला पुरुष अग्निष्टोम यज्ञ के फल का भागी होता है। पंचगव्य सेवन करनेवाले मनुष्य को चान्द्रायण व्रत का फल मिलता है। यदि धीर पुरुष चतुर्मास में नित्य परिमित अन्न का भोजन करता है तो उसके सब पातकों का नाश हो जाता है और वह वैकुंठ धाम को पाता है। चतुर्मास में केवल एक ही अन्न का भोजन करनेवाला मनुष्य रोगी नहीं होता।

जो मनुष्य चतुर्मास में केवल दूध पीकर अथवा फल खाकर रहता है, उसके सहसो पाप तत्काल बिलीन हो जाते हैं।

• पंद्रह दिन में एक दिन संपूर्ण उपवास करने से शरीर के दोष जल जाते हैं और चौदह दिनों में तैयार हुए भोजन का रस ओज में बदल जाता है। इसलिए एकादशी के उपवास की महिमा है। वैसे तो गृहस्थ को महीने में केवल शुक्लपक्ष की एकादशी रखनी चाहिए, किंतु चतुर्मास की तो दोनों पक्षों की एकादशियों रखनी चाहिए।

जो बात करते हुए भोजन करता है, उसके वार्तालाप से अन्न अशुद्ध हो जाता है। वह केवल पाप का भोजन करता है। जो मौन होकर भोजन करता है, वह कभी दुःख में नहीं पड़ता। मौन होकर भोजन करनेवाले राक्षस भी स्वर्गलोक में चले गये हैं। यदि पके हुए अन्न में कीड़े-मकोड़े पड़ जायें तो वह अशुद्ध हो जाता है। यदि मानव उस अपवित्र अन्न को खा ले तो वह दोष का भागी होता है। जो नरश्रेष्ठ प्रतिदिन ॐ प्राणाय स्वाहा, ॐ अपानाय स्वाहा, ॐ व्यानाय स्वाहा, ॐ उदानाय स्वाहा, ॐ समानाय 'स्वाहा' - इस प्रकार प्राणवायु को पाँच आहुतियों देकर मौन हो भोजन करता है, उसके पाँच पातक निश्चय ही नष्ट हो जाते हैं।

चतुर्मास में जैसे भगवान विष्णु आराधनीय हैं, वैसे ही ब्राह्मण भी भाद्रपद मास आने पर उनकी महापूजा होती है। जो चतुर्मास में भगवान विष्णु के आगे खड़ा होकर 'पुरुष सूक्त' का पाठ करता है, | उसकी बुद्धि बढ़ती है ('पुरुष सूक्त' के लिए देखें। 'ऋषि प्रसाद' को अगस्त २००३ का अंक) ।

चतुर्मास सब गुणों से युक्त समय है। इसमें धर्मयुक्त श्रद्धा से शुभ कामों का अनुष्ठान करना चाहिए।

सत्संगे द्विजभक्तिश्च गुरुदेवाग्नितर्पणम् ।
गोप्रदानं वेदपाठः सत्क्रिया सत्यभाषणम् ॥
गोभक्तिर्दानभक्तिश्च सदा धर्मस्य साधनम् ।

'सत्संग, भक्ति, गुरु, देवता और अग्नि का तर्पण, गोदान, वेदपाठ, सत्कर्म, सत्यभाषण, गोभक्ति और दान में प्रीति ये सब सदा धर्म के - साधन हैं।' (स्कं. पु., ब्रा. : २.५-६)
देवशयनी एकादशी से देवउठनी एकादशी तक उक्त धर्मों का साधन एवं नियम महान फल देनेवाला है। चतुर्मास में भगवान नारायण योगनिद्रा में शयन करते हैं, इसलिए चार मास शादी-विवाह और सकाम यज्ञ नहीं होते। ये मास तपस्या करने के हैं।

चतुर्मास में योगाभ्यास करनेवाला मनुष्य ब्रह्मपद को प्राप्त होता है। 'नमो नारायणाय' का जप करने से सौ गुने फल की प्राप्ति होती है। यदि मनुष्य चतुर्मास में भक्तिपूर्वक योग के अभ्यास में तत्पर न हुआ तो निःसंदेह उसके हाथ से अमृत का कलश गिर गया। जो मनुष्य नियम, व्रत अथवा जप के बिना चौमासा बिताता है वह मूर्ख है।
बुद्धिमान मनुष्य को सदैव मन को संयम में रखने का प्रयत्न करना चाहिए। मन के भलीभाँति वश में होने से ही पूर्णतः ज्ञान की प्राप्ति होती है।

सत्यमेकं परो धर्मः सत्यमेकं परं तपः ।
सत्यमेकं परं ज्ञानं सत्ये धर्मः प्रतिष्ठितः ॥
धर्ममूलमहिंसा च मनसा तां च चिन्तयन् ।
कर्मणा च तथा वाचा तत एतां समाचरेत् ॥

"एकमात्र सत्य ही परम धर्म है। एक सत्य ही परम तप है। केवल सत्य ही परम ज्ञान है और सत्य में ही धर्म की प्रतिष्ठा है। अहिंसा धर्म का मूल है। इसलिए उस अहिंसा को मन, वाणी और क्रिया के द्वारा आचरण में लाना चाहिए।' (स्कं. पु. ब्रा. : २.१८-१९)

चतुर्मास में विशेष रूप से जल की शुद्धि होती है। उस समय तीर्थ और नदी आदि में स्नान करने का विशेष महत्त्व है। नदियों के संगम में स्नान के पश्चात् पितरों एवं देवताओं का तर्पण करके जप, होम आदि करने से अनंत फल की प्राप्ति होती है। के समय कोशेजकर रात को और संध्याकाल मेंरचान न करे। गर्म जल से भी स्नान नहीं करना चाहिए। गर्म जल का त्याग कर देने से पुष्कर तीर्थ में मान करने का फल मिलता है।

जो मनुष्य जल में तिल और आँवले का मिश्रण अथवा बिल्वपत्र डालकर 'ॐ नमः शिवाय' का चार- पाँच बार जप करके उस जल से स्नान करता है, उसे नित्य महान पुण्य प्राप्त होता है। बिल्वपत्र से वायुप्रकोप दूर होता है और स्वास्थ्य की रक्षा होती है ।

चतुर्मास में जीन दया विशेष धर्म है। प्राणियों से द्रोह करना कभी भी धर्म नहीं माना गया है। इसलिए मनुष्यों को सर्वथा प्रयत्न करके प्राणियों के प्रति दया करनी चाहिए। जिस धर्म में दया नहीं है वह दूषित माना गया है। सब प्राणियों के प्रति आत्मभाव रखकर सबके ऊपर दया करना सनातन धर्म है, जो सब पुरुषों के द्वारा सदा सेवन करने योग्य है।

सब धर्मो में दान-धर्म की विद्वान लोग सदा प्रशंसा करते हैं। चतुर्मास में अन्न, जल, गौ का दान, प्रतिदिन वेदपाठ और हवन से सब महान फल देनेवाले हैं।

सधर्म, सत्कथा, सत्पुरुषों की सेवा, संतों के दर्शन, भगवान विष्णु का पूजन आदि सत्कमों में संलग्न रहना और दान में अनुराग होना - ये सब बातें चतुर्मास में दुर्लभ बतायी गयी हैं। चतुर्मास में दूध, दही, घी एवं महे का दान महाफल देनेवाला होता है। जो चतुर्मास में भगवान की प्रीति के लिए विद्या, गौ व भूमि का दान करता है, वह अपने पूर्वजों का उद्धार कर देता है। विशेषतः चतुर्मास में अग्नि में आहुति, भगवद्भक्त एवं पवित्र ब्राह्मणों को दान और गौओं की भलीभाँति सेवा, पूजा करनी चाहिए।

पितृकर्म (श्राद्ध) में सिला हुआ वस्त्र नहीं पहनना चाहिए। जिसने असत्य भाषण, क्रोध तथा पर्व के अवसर पर मैथुन का व्याग कर दिया है, वह अश्वमेध यज्ञ का फल पाता है। असत्य भाषण के त्याग से मोक्ष का दरवाजा खुल जाता है। किसी पदार्थ को उपयोग में लाने से पहले उसमें से कुछ भाग सत्पात्र ब्राह्मण को दान करना चाहिए। जो धन सत्पात्र ब्राह्मण को दिया जाता है, वह अक्षय होता है। इसी प्रकार जिसने कुछ उपयोगी वस्तुओं को चतुर्मास में त्यागने का नियम लिया हो, उसे भी वे वस्तुएँ सत्पात्र ब्राह्मण को दान करनी चाहिए। ऐसा करने से वह त्याग सफल होता है।

चतुर्मास में जो स्नान, दान, जप, होम, स्वाध्याय और देवपूजन किया जाता है, वह सब अक्षय हो जाता है। जो एक अथवा दोनों समय पुराण सुनता है, वह पापों से मुक्त होकर भगवान विष्णु के धाम को जाता है। जो भगवान के शयन करने पर विशेषतः उनके नाम का कीर्तन और जप करता है, • उसे कोटि गुना फल मिलता है।

देवशयनी एकादशी के बाद प्रतिज्ञा करना कि "हे भगवन् ! मैं आपकी प्रसन्नता के लिए अमुक "सत्कर्म करूँगा।" और उसका पालन करना इसीको व्रत कहते हैं। यह व्रत अधिक गुणोंवाला होता है। अग्निहोत्र, भक्ति, धर्मविषयक श्रद्धा, उत्तम बुद्धि, सत्संग, सत्यभाषण, हृदय में दया, सरलता एवं कोमलता, मधुर वाणी, उत्तम चरित्र में अनुराग, वेदपाठ, चोरी का त्याग, अहिंसा, लज्जा, क्षमा, मन एवं इन्द्रियों का संयम, लोभ, क्रोध और मोह का अभाव, वैदिक कर्मों का उत्तम ज्ञान तथा भगवान को अपने चित्त का समर्पण - इन नियमों को मनुष्य अंगीकार करे और व्रत का यत्नपूर्वक पालन करे ।

('पद्म पुराण' के उत्तर खंड, 'स्कंद पुराण' के ब्राह्म खंड एवं नागर खंड- उत्तरार्ध से संकलित)
REF: ISSUE169 –JULY2004