भारतीय संस्कृति में धार्मिक अनुष्ठान, पूजा-पाठ, सामाजिक व सांस्कृतिक कार्यक्रमों में दीपक प्रज्वलित करने की परम्परा है । दीपक हमें अज्ञानरूपी अंधकार को दूर करके पूर्ण ज्ञान को प्राप्त करने का संदेश देता है । आरती करते समय दीपक जलाने के पीछे उद्देश्य यही होता है कि प्रभु हमें अज्ञान-अंधकार से आत्मिक ज्ञान-प्रकाश की ओर ले चलें । मृत्यु से अमरता की ओर ले चलें ।
मनुष्य पुरुषार्थ कर संसार से अंधकार दूर करके ज्ञान का प्रकाश फैलाये ऐसा संदेश दीपक हमें देता है । दीपावली पर्व में, अमावस्या की अँधेरी रात में दीप जलाने के पीछे भी यही उद्देश्य छुपा हुआ है । घर में तुलसी की क्यारी के पास भी दीप जलाये जाते हैं । किसी भी नये कार्य की शुरुआत भी दीप जलाकर की जाती है । अच्छे संस्कारी पुत्र को भी कुल-दीपक कहा जाता है ।
दीपक की लौ किस दिशा में हो ?
पूज्य बापूजी के सत्संग-अमृत में आता है : ‘‘आप दीया जलाते हैं, आरती करते हैं, इसका बहुत पुण्य माना गया है परंतु आरती के दीपक की बत्ती या लौ अगर पूर्व की तरफ है तो आयु की वृद्धि होगी, अगर उत्तर की तरफ है तो आपको धन-लाभ में मदद मिलेगी, यदि दक्षिण की तरफ है तो धन-हानि और पश्चिम की तरफ है तो दुःख व विघ्न लायेगी । इसीलिए घर में ऐसी जगह पर आरती करें जहाँ या तो पूर्व की तरफ लौ हो या तो उत्तर की तरफ । ऋषियों ने कितना-कितना सूक्ष्म खोजा है !
लौ दीपक के मध्य में लगाना शुभ फलदायी है । इसी प्रकार दीपक के चारों ओर लौ प्रज्वलित करना भी शुभ है ।
दीपक के समक्ष इन श्लोकों के पठन से विशेष लाभ होता है :
शुभं करोति कल्याणमारोग्यं सुखसम्पदाम् ।
शत्रुबुद्धिविनाशाय दीपज्योतिर्नमोऽस्तु ते ।।
‘शुभ एवं कल्याणकारी, स्वास्थ्य एवं सुख-सम्पदा प्रदान करनेवाली तथा शत्रुबुद्धि का नाश करनेवाली हे दीपज्योति ! मैं तुम्हें नमस्कार करता हूँ ।’
दीपज्योतिः परब्रह्म दीपज्योतिर्जनार्दनः ।
दीपो हरतु मे पापं दीपज्योतिर्नमोऽस्तु ते ।।
‘उस परब्रह्म-प्रकाशस्वरूपा दीपज्योति को नमस्कार है । वह विष्णुस्वरूपा दीपज्योति मेरे पाप को नष्ट करे ।’
ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते । (गीता : 13.17)
ज्योतियों-की-ज्योति आत्मज्योति है । जिसको सूर्य प्रकाशित नहीं कर सकता बल्कि जो सूर्य को प्रकाश देती है, चंदा जिसको चमका नहीं सकता अपितु जो चंदा को चमकाती है वह आत्मज्योति है । महाप्रलय में भी वह नहीं बुझती । उसके प्रतीकरूप में यह दीपक की ज्योति जगमगाते हैं ।
दीपज्योतिः परब्रह्म... अंतरात्मा ज्योतिस्वरूप है, उसको नहीं जाना इसलिए साधक बाहर की ज्योति जगाकर अपने गुरुदेव की आरती करते हैं :
ज्योत से ज्योत जगाओ
सद्गुरु ! ज्योत से ज्योत जगाओ ।
मेरा अंतर तिमिर मिटाओ,
सद्गुरु ! ज्योत से ज्योत जगाओ ।
अंतर में युग-युग से सोयी,
चितिशक्ति को जगाओ ।।...
यह अंदर की ज्योत जगाने के लिए बाहर की ज्योत जगाते हैं । इससे बाहर के वातावरण में भी लाभ होता है ।
दीपो हरतु मे पापं... दीपज्योति पापों का शमन करती है, उत्साह बढ़ाती है लेकिन दीपज्योति को भी जलाने के लिए तो आत्मज्योति चाहिए और दीपज्योति को नेत्रों के द्वारा देखने के लिए भी आत्मज्योति चाहिए । यह आत्मज्योति है तभी नेत्रज्योति है और नेत्रज्योति है तभी दीपज्योति है, वाह मेरे प्रभु ! भगवान का चिंतन हो गया न ! आपस में मिलो तो उसीका कथन करो, उसीका चिंतन करो, आपका हृदय उसके ज्ञान से भर जाय ।
दीप-प्रज्वलन का वैज्ञानिक रहस्य
दीया इसलिए जलाते हैं कि वातावरण में जो रोगाणु होते हैं, हलके परमाणु होते हैं वे मिटें । मोमबत्ती जलाते हैं तो अधिक मात्रा में कार्बन पैदा होता है और दीपक जलाते हैं तो दीपज्योति से नकारात्मक शक्तियों का नाश होता है, सात्त्विकता पैदा होती है, हानिकारक जीवाणु समाप्त होते हैं ।’’
घी या तेल का दीपक जलने से निकलनेवाला धूआँ घर के वातावरण के लिए शोधक Purifier) का काम करता है और स्वच्छ व मनमोहक वातावरण रोगप्रतिरोधी तंत्र को मजबूत करने में सहायक है ।
REF: ISSUE344-AUGUST-2021