- पूज्य संत श्री आशारामजी बापू
आज तक तो सुना होगा कि एक पिता, एक माता लेकिन ‘एकनाथी भागवत’ ने तो बड़ा सूक्ष्म रहस्य खोलकर रख दिया । पाँच पिता होते हैं । एक तो माँ के गर्भ में गर्भाधान किया, वह जन्मदाता पिता होता है । दूसरा पिता वह होता है जिसने जन्म के बाद उपनयन संस्कार किया, मानवता की विधि कर दी । खिलाने-पिलाने-पोसने का काम जिसने किया वह तीसरा पिता तथा जो भय और बंधन से छुड़ाने की दीक्षा-शिक्षा देते हैं, वे चतुर्थ पिता माने जाते हैं । ‘जो सत् है, चित् है, आनंद है वही तू है । तुझे बंधन पहले था नहीं, अभी है नहीं, बाद में हो सकता नहीं । यह रज-वीर्य से पैदा होनेवाला शरीर तू नहीं है । खा-पीकर पुष्ट होनेवाली देह तू नहीं है । संस्कारों को समझनेवाला मन तू नहीं है । निश्चय करनेवाली बुद्धि तू नहीं है । तू है अपना-आप, हर परिस्थिति का बाप !’ - यह अनुभव करानेवाले, जन्म-मरण के भय से छुड़ानेवाले पंचम पिता सद्गुरु होते हैं । माता, पिता, बंधु, सखा, दीक्षा गुरु, शिक्षा गुरु - सबका दायित्व उनके द्वारा सम्पन्न हो जाता है । ऐसे महापुरुष के लिए संत कबीरजी ने कहा :
सद्गुरु मेरा शूरमा, करे शब्द की चोट ।
मारे गोला प्रेम का, हरे भरम की कोट ।।
जो पहले जन्मदाता माँ-बाप हैं वे तो मोह से पालन-पोषण करेंगे लेकिन जो सच्चे बादशाह (सद्गुरु) होते हैं वे प्रेम से पालन-पोषण करते हैं । मोह में माँग रहती है, प्रेम में कोई माँग नहीं । प्रेम अपने-आपमें पूर्ण है ।
पूरा प्रभु आराधिआ पूरा जा का नाउ ।
नानक पूरा पाइआ पूरे के गुन गाउ ।
एक प्रेम ही पूर्ण है । हिरण्यकशिपु ने दैत्यों को सुखी किया लेकिन स्वयं सुख के लिए अहंकार की गोद में बैठता था, ‘मैं भगवान हूँ ।’ रावण ऐश-आराम की, विकारों की गोद में बैठता है, ‘यह ललना सुंदर है, यह सुंदर है ।’ परंतु प्रेमदेवता के चरणों में पहुँचना बहुत ऊँची बात है !
जन्म देता है पिता तो केवल पिता ही रहता है, माता दूसरी होती है । लेकिन वह सच्चा बादशाह है जो माता की नाईं वात्सल्य भी देता है और पिता की नाईं हमारे सद्ज्ञान का, सद्विचारों का पालन भी करता है । ब्रह्मज्ञानी गुरु तो माता, पिता, बंधु, सखा... अरे, ब्रह्म होता है ! उस ब्रह्म-परमात्मा की गति-मति कोई देवी-देवता, यक्ष, राक्षस, गंधर्व, किन्नर, दुनिया के सारे बुद्धिमान मिलकर भी नहीं जान सकते ।
जीव जब तक जीवित है तब तक भोग का आकर्षण रहता है । स्वर्ग का, ब्रह्मलोक का सुख जीव भोगता है, ईश्वर नहीं । जीने की, पाने की वासना रही तब तक जीव है लेकिन जब पंचम पिता मिलता है तो जीवन और मृत्यु जिससे होती है, उस वासना पर वह ज्ञान की कुल्हाड़ी, कैंची चलाता है । ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं... ज्ञान से कर्मबंधन कट जाते हैं, वासना कट जाती है । वह पंचम पिता शिष्य को वास्तविक कर्तव्य बताता है । नहीं तो नासमझ लोग बोलते हैं, ‘मैं वकील हूँ, वकालत करना मेरा कर्तव्य है ।’ ‘मैं महंत हूँ, आश्रम चलाना मेरा कर्तव्य है ।’ ‘मैं माई हूँ, मैं भाई हूँ, यह मेरा कर्तव्य है ।’ नहीं-नहीं बेटा ! जिसके साथ जो संबंध है उसके अनुरूप उसका भला कर लिया, अपने लिए उससे कुछ न चाहा और अपने-आपमें पूर्णता है, उसमें विश्राम पाया - यह तुम्हारा कर्तव्य है ।
देखा अपने आपको मेरा दिल दीवाना हो गया ।
न छेड़ो मुझे यारों मैं खुद पे मस्ताना हो गया ।।
अतः शिष्य के लिए सद्गुरु ही सच्चे माता-पिता हैं, जो उसे निजस्वरूप में जगा देते हैं ।
REF: ISSUE247-JULY-2013