Rishi Prasad- A Spiritual Monthly Publication of Sant Sri Asharam Ji Ashram

बात अच्छी न भी लगे लेकिन है 100% सत्य

- पूज्य संत श्री आशारामजी बापू

जन्म का फल यह है कि परमात्मा का ज्ञान पायें । नौकरी मिल गयी, प्रमोशन हो गया...यह सब तुम्हें ठगने का व्यवहार है । परमात्मा के सिवाय किसी भी वस्तु, व्यक्ति में कहीं भी प्रीति की तो अंत में पश्चात्ताप के सिवाय कुछ हाथ नहीं लगेगा । सब धोखा देंगे, देखना । हमारी बात अभी तुमको अच्छी नहीं भी लगे लेकिन है सौ प्रतिशत सत्य । ईश्वर के सिवाय किसीमें भी प्रीति की तो अंत में रोना ही पड़ेगा । व्यवहार तो जगत के पदार्थों से करो, प्रेम भगवान से करो । संसार प्रेम करने योग्य नहीं है, वस्तुएँ प्रेम करने योग्य नहीं हैं । प्रेम करने योग्य तो परमात्मा हैं । मोह रखो तो परमात्मा में, प्रीति करो तो परमात्मा से, लड़ाई करो तो परमात्मा से करो, उलाहना दो तो परमात्मा को दो । तुम्हारे लिए परमात्मा सर्वस्व होना चाहिए ।

भगवान को उलाहना दें ?’

हाँ, कम-से-कम इस बहाने भी तो उसकी याद रहेगी तो भी बेड़ा पार हो जायेगा । तू सबके हृदय में छुपा है और फिर प्रकट नहीं होता । मुझमें इतनी अक्ल नहीं, तब हे करुणानिधे ! तुम करुणा नहीं करोगे तो मेरा क्या होगा... 84 लाख योनियों में भटकता रहूँगा । मनुष्य-जन्म की मति का दुरुपयोग करके दुर्गति में न गिरूँ ।

दीन दयाल बिरिदु संभारी ।

हरहु नाथ मम मूढ़ता भारी ।।

तू सत्-चित्-आनंद है और मेरा अंतरात्मा एवं विश्वेश्वर परमात्मा एक-का-एक ! तुम्हारी तरफ न जाकर असत्-जड़-दुःखरूप पंचविकारों की तरफ अंधा आकर्षण लगा है नाथ ! पतंगे का अंधा आकर्षण उसे जलाकर मार देता है दीये में । भौंरे का कमल की सुगंध का आकर्षण उसे जानवरों के द्वारा मृत्यु के घाट उतार देता है । मछली का स्वाद का आकर्षण उसे कुंडे में फँसा देता है । हाथी का कामविकार का अंधा आकर्षण उसे गुलामी की जंजीरों में बाँध देता है । मृग का सुनने का आकर्षण उसे शिकारी का शिकार बना देता है ।

अलि पतंग मृग मीन गज, एक एक रस आँच ।

तुलसी तिनकी कौन गति, जिनको ब्यापे पाँच ।।

यह संत तुलसीदासजी का वचन सुनने-समझने के बाद भी पंचविकारों में आकर्षित होने की मूढ़ता लगी है ।

दीन दयाल बिरिदु संभारी ।

हरहु नाथ मम मूढ़ता भारी ।।

सत्संग, ध्यान, आत्मसुख, परमात्म-ज्ञान का प्रसाद छोड़कर तुच्छ विकारों में अपने को तबाह कर रहे हैं । आत्मज्ञानात् परं ज्ञानं न विद्यते । आत्मलाभात् परं लाभं न विद्यते । आत्मसुखात् परं सुखं न विद्यते । - ये शास्त्र व संत वचन तथा गीता-ज्ञान के होते हुए भी, उपनिषद् का अमृत होते हुए भी विषय-विकारों की तरफ अंधी दौड़ लगा रहे हैं । अशांति, विषाद, भय, चिंता, शोक की संसारी आग में तपते हुए भी... संसारतापे तप्तानां योगः परमौषधः ।सुनते-समझते हुए भी... न कर्मयोग, न भक्तियोग, न ज्ञानयोग में चल पाते हैं । दीन दयाल बिरिदु संभारी । हरहु नाथ मम मूढ़ता भारी ।।ऐसा कह के उसको उलाहना दो और मन को भी समझाओ कि स्वर्ग का राज्य मिला तो क्या ? फूलों की शय्या हो, अप्सरा कंठ लगे तो आखिर क्या ? इन्द्र का नंदनवन हो और गंधर्वों के साथ विहार करने को मिल जाय, फिर क्या ? आखिर क्या ? आखिर मरो, फिर किसीके गर्भ में आओ, कौवा बनो, कीट बनो, पेड़ बनो और बिना पानी के सूख-सूख के मरो, फिर जन्मो... आखिर क्या ? राजा नृग यश के लिए दान-पुण्य करता था व अपनी खुशामद करनेवालों को, यश गानेवालों को इनाम देकर बड़ा यशस्वी राजा कहा जाता था । हाड़-मांस के यश में, राजसुख में मनुष्यता पूरी हो गयी । फिर मरने के बाद गिरगिट बना । राजा अज बड़ा प्रभावशाली राजा कहलाता था । आरामप्रियता की वासना से अजगर बना दूसरे जन्म में । इन्द्रों में भी जो आत्मज्ञानी हुए उनको तो नमस्कार है, बाकी के अप्सराओं के नाच-गान में, विकारों में लगे इन्द्रपदवाले भी स्वर्ग से पतित होकर नीची योनियों में भटकते-भटकते कीड़े-मकोड़े की योनि तक पतित हो गये । आखिर क्या ?’

मकान बन गया, फिर क्या ? कब तक रहोगे उसमें ? इस जमीन पर न जाने कितने मालिक आ गये । अंग्रेज कहते थे कि हमारी है’, हूण कहते थे : हमारी है’, मुस्लिम शासक कहते थे : हमारी है’, हिटलरवाले कहने लगे : यह इलाका हमारा है ।ऐसा हमारा-हमाराकहकर कई मर गये । फिर अपन कहते हैं, ‘यह हमारा है ।ये हमारी चीजें थोड़े ही हैं ?

शतरंज बिछी रह जायेगी, खिलाड़ी एक-एक करके उठ जायेगा ।

राजकोट पर, अहमदाबाद पर और दूसरे इलाकों पर कइयों ने दावा किया कि हमारा है ।कितने राजा हो गये, ‘हमारा-हमारादावा कर-करके सब मर गये । यह पृथ्वी यहीं-की-यहीं पड़ी रही, हवाएँ वही चलती रहीं, सूरज वही बरसता रहा... लेकिन खिलाड़ी गायब हो गये फिर नये आये । वे भी गायब होने के लिए ही आये हैं । खिलाड़ी गायब हों उसके पहले शाश्वत सत्य समझ में आ जाय तो कितना सुंदर होगा ! मौत आकर शरीर को घेर ले, श्मशान में लकड़ियाँ डाल के शरीर को भभक-भभक करके जला दिया जाय उसके पहले अगर मौन की भाषा समझ में आ जाय, निःसंकल्प चित्त-दशा में प्रवेश हो जाय तो कितना सुंदर होगा !

 

 

REF: ISSUE320-AUGUST-2019